प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 29 अक्टूबर से 2 नवम्बर तक इटली व ब्रिटेन की यात्रा पर हैं. उनकी ये यात्रा भारत के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है. जी-20 देशों के समूह के शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए दो दिन तक वे रोम में ही रहेंगे, जहां पहले दिन 'वैश्विक अर्थव्यवस्था और वैश्विक स्वास्थ्य' पर विचार-विमर्श होगा. पिछले पौने दो साल में भारत समेत दुनिया के अन्य देशों में कोरोना महामारी ने जो तबाही मचाई है, उसका खासा असर सबकी अर्थव्यवस्था पर हुआ है, लिहाज़ा उससे उबरने के नए उपायों पर चर्चा होगी. साथ ही समूह 20 के सदस्य देश स्वास्थ्य को लेकर भी एक समान नीति बनाने का रास्ता तलाशने पर भी विचार करेंगे.


लेकिन इस सम्मेलन का दूसरा दिन भारत समेत सभी 20 देशों के लिए और भी ज्यादा अहम इसलिये है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान का खतरा ज्यादा भयावह है, लिहाज़ा इस पर नियंत्रण पाते हुए विकास की रफ्तार को जारी रखने जैसे मुद्दे पर तमाम नेता अपने सुझाव देंगे. इटली के शिखर सम्मेलन के बाद पीएम मोदी ब्रिटेन के ग्लासगो जाएंगे, जहां वे 26वें कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी-26) में विश्व नेताओं की शिखर बैठक में हिस्सा लेंगे. ये सम्मेलन इसलिये ज्यादा अहम है कि भारत समेत दुनिया के 120 देशों के नेता इसमें हिस्सा ले रहे हैं और सबसे बड़ा मुद्दा सिर्फ यही है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते ख़तरे से कैसे निपटा जाए कि दुनिया सुरक्षित बनी रहे.


दरअसल, राजनीतिक मुद्दों के शोरगुल के बीच हम ये भूल जाते हैं कि जलवायु परिवर्तन से भारत को हर साल कितने हजारों करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है और अगर यही हाल रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी पूरी अर्थव्यवस्था ही तहस-नहस हो जाएगी. वर्ल्ड मीटियोरोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन द्वारा जारी आंकड़े के मुताबिक भारत को पिछले एक साल में प्राकृतिक आपदाओं जैसे सूखा, बेमौसम बरसात, बाढ़ और तूफ़ान की वजह से 87 अरब डॉलर का नुक़सान हुआ है. ये बेहद चौंकाने वाला आंकड़ा है और इस मामले में भारत से आगे सिर्फ चीन है, जिसका पिछले एक साल का नुक़सान 238 अरब डॉलर का है. विशेषज्ञ इस नुक़सान को जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देखते हैं.


ग्लासगो में COP26 सम्मेलन 31 अक्टूबर से शुरु होगा, जो 13 दिन तक चलेगा. इसे COP सम्मेलन कहा जाता है, जिसका मतलब है- 'कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ पार्टीज़'.इस बार इस सम्मेलन में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन भी हिस्सा लेने वाले हैं. ग्लासगो का एजेंडा वैसे तो बहुत बड़ा है, लेकिन उनमें से सबसे अहम और महत्वपूर्ण है पेरिस समझौते के नियमों को अंतिम रूप देना. साल 2015 में जलवायु परिवर्तन को लेकर पेरिस समझौता हुआ था. उसका मक़सद कार्बन गैसों का उत्सर्जन कम कर दुनियाभर में बढ़ रहे तापमान को रोकना था ताकि ये 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा ना बढ़ने पाए. इसके बाद दुनिया के देशों ने स्वेच्छा से अपने लिए लक्ष्य तय किए थे. लेकिन भारत ने अभी तक ऐसा कोई लक्ष्य तय नहीं किया है.


हालांकि संयुक्त राष्ट्र के ताजा अनुमानों के फिलहाल अलग-अलग देशों ने जो लक्ष्य तय किए हैं, उससे दुनिया का तापमान इस सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा, जो बेहद खतरनाक स्थिति होगी. लिहाज़ा, ग्लासगो में इसी बात पर चर्चा होगी कि इस बार 2 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान पर वादा करने से बात नहीं बनेगी. दुनिया के सभी देशों को मिलकर इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा ना बढ़ने देने का संकल्प करना होगा.


चीन, दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है. चीन पहले ही घोषणा कर चुका है कि वह 2060 तक कार्बन न्यूट्रल हो जाएगा. दूसरे सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देश अमेरिका ने नेट-ज़ीरो तक पहुंचने के लिए 2050 तक का लक्ष्य रखा है. अमेरिका का कहना है कि वह 2035 तक अपने पावर सेक्टर को डी-कार्बनाइज़ कर देगा.


लेकिन भारत ने अभी तक इसके लिए अपनी डेडलाइन नहीं बताई है. हो सकता है कि इस सम्मेलन में भारत भी अपना लक्ष्य तय करने की डेडलाइन का एलान कर दे. ग्लासगो सम्मेलन में इस मुद्दे पर भी चर्चा होगी कि अब तक दुनिया में जहां-जहां कोयले से बिजली उत्पादन हो रहा है, उस पर निर्भरता कैसे ख़त्म की जाए. क्योंकि कोयले के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन सबसे ज़्यादा होता है. लेकिन आर्थिक विकास के लिए उसकी ज़रूरत को नज़रअंदाज भी नहीं की किया जा सकता. चीन, भारत और अमेरिका इसके लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं. इन तीनों देशों ने कोयले पर निर्भरता ख़त्म करने की कोई डेडलाइन नहीं दी है. हालांकि जलवायु परिवर्तन पर बनी संयुक्त राष्ट्र की अंतर सरकारी समिति (आईपीसीसी) का कहना है कि दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए ज़रूरी है कि 2050 तक दुनिया की कोयले पर निर्भरता पूरी तरह से ख़त्म हो जाए.


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