लोकसभा चुनाव में जब नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में उद्घोष किया था कि उन्हें मां गंगे ने बुलाया है तो उसकी प्रतिध्वनि यही थी कि बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) अगर सत्ता में आती है तो गंगा को स्वच्छ करना उसकी प्राथमिकता में होगा. निश्चित तौर पर वाराणसी में इस बयान के अपने निहितार्थ थे. बीजेपी राष्ट्रीयता और परंपरा के जिन प्रतीकों को अपने साथ जोड़कर मतदाताओं के पास जाती है उसमें गंगा को स्वच्छ करने का उद्घोष उसके लिए जरूरी भी था. ऐसा नहीं कि पिछली सराकारों में गंगा की सफाई के अभियान नहीं चले बल्कि करोडों रुपय इन अभियानों ने चला गया. लेकिन गंगा मैली ही रही. मोदी अपनी जिस छवि के साथ उभरे उसमें गंगा के लिए थोड़ी उम्मीद बढ़ी, खासकर तब जबकि उन्होंने वाराणसी को अपना चुनावी क्षेत्र बनाया हो. मोदी यह जताना भी नहीं भूले कि अपने जीवन के यौवन काल में उन्होंने कुछ साल हिमालय के क्षेत्र में योग-तप में भी बिताए हैं.

गंगा के प्रति इस प्रतिबद्धता पर लोगों की आशाएं परवान चढ़ीं और लगा कि गंगा को स्वच्छ करने का अभियान दिखावटी न होकर जमीनी स्तर पर होगा. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद नई सरकार ने 2019-20 तक के लिए बीस करोड़ रुपए का बजट तय करके अपनी पहल भी शुरू की. लेकिन चार सालों में गंगा को साफ करने का अभी तक ऐसा ठोस स्वरूप सामने नहीं आया. बेशक समय-समय पर गंगा के तट साफ किए जाते हो, बेशक इस आह्वान से एक तरह की जागरुकता भी आई है. स्वंयसेवी सस्थाओं ने बढ़-चढ़ कर अपने अभियानों को चलाया है. लेकिन गंगा की सफाई का अभियान महज यहीं तक नहीं है. गंगा को साफ करने के लिए जरूरी है कि गंगा के साथ-साथ यमुना और तमाम सहायक नदियों की सफाई के लिए भी उतनी क्षमता से अभियान चले. नमामी गंगे पर गंगा की खूब चर्चा होती है, गंगा को लेकर बातें होती हैं लेकिन बाकी नदियों की सुध नहीं ली जाती. यमुना के पानी को दिल्ली हरियाणा में ही मत देखिए, यमुनोत्री से उसका उतरना देखिए. कालिंदी पर्वत से उतरती यमुना यमुनोत्री के मंदिर को छूकर जब आगे निकलती है तब भी उसका जल साफ-सुथरा और हल्का नीलापन लिए होता है.

यमुनोत्री धाम के समाधान की कोई बात नहीं होती

दिल्ली-हरियाणा में कल्पना नहीं कर सकते कि केवल 200 किलोमीटर दूर यह नदी इतनी स्वच्छ होगी. लेकिन यमुनोत्री में आकर अगर गर्म कुंड में आएं तो आपको निराशा होगी. यहां गर्म गंधक के पानी में नहाते लोग अपने कपड़ों को भी निचोड़ने लगते हैं. खरसाली से यमुनोत्री के करीब पांच किलोमीटर पैदल रास्ते में जो अव्यवस्थाएं हैं वो दशकों पुरानी हैं. यमुनोत्री यात्रा का प्रथम द्वार है. यही से लोगों के मन में चार धाम की व्यवस्था के प्रति आम धारणा बनती है. लेकिन इसके रास्ते में जगह-जगह घोडों की लीद, प्लास्टिक की खाली बोतलें और तमाम चीजें बिखरी मिलती हैं. न जाने यह सब कहां जाता है. कहीं कोई कूड़ा इक्ट्ठा करने की जगह नहीं है. स्थानीय लोग कह देते हैं कि ये सब यमुना जी में जाता, और कहां जाएगा. इन 18 सालों में बीजेपी-कांग्रेस की सरकारें आती-जाती रहीं लेकिन यमुनोत्री धाम की सुध लेने वाला कोई नहीं रहा. यमुनोत्री की दिक्कत यह भी है कि हर बार बरसात में उफनता पानी इस इलाके के हिस्सों को तोड़ता हुआ चलता है. इसके लिए कोई कारगर व्यवस्था नहीं होती. द्वार खुलने पर फोटो खींचते हैं यात्रियों की पिछली संख्या पर खुशी जताई जाती है और नए यात्रियों का आह्वान होता है. लेकिन यमुनोत्री धाम को व्यवस्थित करने और उसकी दिक्कतों के स्थाई समाधान के लिए कोई बात नहीं होती.

मंदिरों के नाम पर चाहे जितनी आय हो लेकिन अव्यवस्था देखनी हो तो यमुनोत्री में देख सकते हैं. कहीं कोई प्रबंध नही दिखता. यमुनोत्री के रावल आशीष कहते हैं कि आखिर मंदिर समिति क्या कर सकती है. जगह बहुत कम है. जिला प्रशासन को आवश्यक कदम उठाने चाहिए. बडी-बडी हस्तियां और सेलिब्रिटी यमुनोत्री आते रहे हैं लेकिन इसकी दशा नहीं बदली. पहाडों से मैदान की ओर उतरती यमुना यहीं से बेहाल हो जाती है. जिस खरसाली से यमुनोत्री की पैदल यात्रा शुरू होती है उसे पड़ाव की एक खूबसूरत जगह होना चाहिए था. खासकर तब जबकि वह शीतकालीन पूजा की जगह है. यहां के बिमलाजी कहती हैं कि खरसाली का यमुना शीतकालीन मंदिर सोमेश्वर के धाम हैं. यहां सर्दियों में भी लोग रासों गीत लगाते थे, मंडान होते थे. राज्य बनने के बाद से इस जगह पर ध्यान दिया जाना चाहिए था. यह क्षेत्र सुव्यव्स्थित होता तो यमुनोत्री की दशा भी सुधरती. लेकिन यहां आने वाला बस किसी तरह इस पड़ाव से गुजरता है. प्रकृति ने तो इस जगह को छटा दी लेकिन हमने इस जगह को सुंदर व्यवस्थित बनाए रखने के लिए कुछ नहीं किया. यमुना जी की स्वच्छता को बनाए रखना यहीं से मुश्किल हो जाता है. आगे तो कारखानों का गंदा पानी नालों से यमुना में उड़ेला जाता है. इस नदी में क्या-क्या नहीं गिरता. आखिर इस मैले हो चुके जल को मिलना तो गंगा में ही है. फिर कैसे गंगा की पूजा नमामी गंगा कहकर कर सकते हैं. खासकर तब जबकि यमुनाजी में जल ही बहुत कम बह रहा है.

गंगा कई शहरों में सदानीरा की तरह बहती है

गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा 2525 किलोमीटर तक बहती है. गंगोत्री में जगह का फैलाव यमुनोत्री की अपेक्षा थोड़ा ज्यादा है. गंगा ऋषिकेश-हरिद्वार-कानपुर-इलाहबाद-बनारस कई शहरों में सदानीरा की तरह बहती है. बनारस में कुछ साल पहले नौका में तैरते हुए उस मांझी की बात रह-रह कर याद आती है. उसने कहा था, "मैं गंगा पुत्र हूं. गंगा की सेवा करता रहा हूं. अपने लिए कुछ नहीं मांगा. पर इस गंगा के जल को मैंने चांदी की तरह चमकते देखा है. उस धारा को फिर से कोई लौटा दे. कुछ ऐसा हो कि मेरी गंगा मां स्वच्छ हो जाएं." लेकिन उस मांझी से कह नहीं सका कि देश भर के लोग जो गंगोत्री पहुंचते हैं उनमें कई गंगा की पूजा भी करते हैं और अपने पहने वस्त्रों को भी उसमें डाल देते हैं. गंगा में क्या-क्या नहीं डालते हैं. गंगा की सहायक नदियों में भी पानी नहीं मिलता. हरिद्वार से आगे गंगा मैली होती चलती है. लेकिन इससे पहले भी पहाड़ों से उतरते हुए गंगा का जल थोडा धुंधला होने लगता है. पानी लबालब नहीं रहता. लेकिन मैदान में पहुंचकर तो बेरहमी से इसके जल को मैला किया जाता है. केवल कारखानों की गंदगी की क्या बात करें, पूजा-पाठ का ढोंग करते कई आश्रमों से भी गंदगी गंगा में उड़ेली जाती है. एक तरफ गंगा की आरती के स्वर गूंजते हैं तो दूसरी ओर काला पानी गंगा में रिसता रहता है. गंगा का पानी आचमन करने की क्षमता तो बहुत पहले ही खो गई. शायद इसके लिए गोमुख या बद्रीनाथ से पहले जाना होगा. गंगा अपने विभिन्न पड़ावों पर मैली होती चली गई है. पानी का बहाव भी कम हुआ है.

केंद्र सरकार की पहल पर बेशक लोगों में जागरुकता आई है. लेकिन नमामी गंगे को किस स्तर पर सहयोग मिलता रहा यह देखना भी लाजिमी है. जिस स्तर पर केंद्र का आह्वान रहा है, राज्य सरकारों की पहल उस अनुरूप नहीं दिखी. जनप्रतिनिधियों का ध्यान भी अपने संसदीय क्षेत्र और बयानों तक रहा है. सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट को लेकर राज्य सरकारों की दिलचस्पी यही रही कि केंद्र इस भूमिका को निभाए. यह भी देखा गया कि होटल, धर्मशाला, व्यवसायिक संस्थान, आश्रम और मठों के सीवरेज पर अंकुश लगाने में राज्य सरकारें तत्पर नहीं हैं. स्थानीय राजनीति और संबंधों के जो दायरे होते हैं उसमें कई चीजें नजरअंदाज की गई हैं. कुछ जगहों पर केवल नोटिस भेज कर औपचारिकता निभाई गई. कहीं कड़ी कार्रवाई होती दिखती तो इसका असर व्यापक होता. टेम्स-राइन जैसी नदियों को स्वच्छ करने का उदाहरण दिया जाता है. लेकिन जो लोग गंगा सफाई के नाम पर इन नदियों के किनारे टहल कर आए हैं उन्होंने जानने की कोशिश नहीं की है कि आखिर ये नदियां किस लगन और भावना के साथ साफ हुई हैं. इसमें लोगों को किस तरह जोड़ा गया है.

ऐसे समय जब पीएम नरेंद्र मोदी फिर जनमत लेने निकलेंगे तब उन्हें ये भी बताना होगा कि जिस गंगा मां ने उन्हें बुलाया उसके लिए उन्होंने क्या किया. गंगा की बात पर वो इतना आगे निकल गए हैं कि एनडीए सरकार आए या ना आए, दूसरी गंगा के अभियान को अब छोड़ा नहीं जा सकता. यह जीवन का सवाल बन गया है. अब जब सरकार के पास केवल एक साल का वक्त रह गया है तब केंद्रीय मंत्री गडकरी के पास यह दायित्व आया है. उमा भारती एनडीए के लिए दूसरे संदर्भों में उपयोगी हो सकती हैं. लेकिन गंगा की स्वच्छता का अभियान पानी की तरह हल्का नहीं है. वह बहुत पेचिदा काम है. मोदी जब वोट मांगने निकलेंगे तब गंगा की स्वच्छता की बात जरूर होगी. वैसे गडकरी भरोसा दिला रहे हैं कि एक साल में वो गंगा को कम से कम सत्तर फीसदी स्वच्छ करा देंगे. 1985 में शुरू हुए गंगा एक्शन प्लान और इसके आठ साल बाद फिर शुरू हुए गंगा स्वच्छता अभियान की यादें लोगों को ज्यादा यकीन नहीं दिला पाई हैं. अब लोगों की निगाह नमामी गंगे पर है. नमामी गंगे केवल गंगा की स्वच्छता ही नहीं बल्कि घाटों का निर्माण, गंगा किनारों का सौदर्य, सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट से भी जुड़ा है. इसलिए इसे बहुत आकर्षक रूप में सामने आना चाहिए. गंगा स्वच्छ हो सकी तो कावेरी-कृष्णा-ताप्ति-सोन-नर्मदा सबकी आशाएं जगेंगी.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)