भारत जब चैन से सो रहा होता है तब लाखों लोग भारतीय रेल में सफर कर रहे होते हैं. कल्पना कीजिए कि डिब्बों के अंदर नींद के आगोश में सोए लोगों को मौत की नींद के आगोश में सोना पड़े तो उनके परिजनों पर कैसा कहर टूटेगा. कानपुर के पास पुखरायां रेलवे स्टेशन से एक किलोमीटर दूर 20 नवंबर की अलसुबह हुआ इंदौर-पटना एक्सप्रेस हादसा ऐसा ही क़हर बन कर टूटा.


आख़िर इन अकाल मौतों का जिम्मेदार कौन है? इसका एकमात्र और स्पष्ट जवाब है- भारतीय रेलवे. यह महकमा साल भर कमाई और भाड़ा बढ़ाने के तरीके खोजने में गर्क रहता है लेकिन सुरक्षा के अत्याधुनिक उपाय अपनाने की सिर्फ लफ्फाजी करता है. हमारा रेल मंत्रालय यात्रियों को जापान और चीन की तर्ज़ पर बुलेट ट्रेन चलाने का सब्ज़बाग दिखा रहा है जबकि देश में पसरी हज़ारों किमी की रेलवे लाइन का संपूर्ण दोहरीकरण और विद्युतीकरण तक नहीं कर पाया. हालत यह है कि भारतीय ट्रेनों को सौ किमी की रफ़्तार से दौड़ा दिया जाए तो वे खेतों में घूमती नज़र आएंगी! आज की ट्रेनें लाखों लोगों को अपनी पीठ पर लादे अंग्रेज़ों के ज़माने की पटरियों पर ‘प्रभु’ के भरोसे दौड़ रही हैं.

हालिया हादसा रेल अधिकारियों की भयंकर, अक्षम्य और चरम लापरवाही का भी सबूत है. इस दुर्भाग्यग्रस्त ट्रेन के ड्राइवर जलत शर्मा ने जो रिपोर्ट दी है उसके मुताबिक झांसी से दो स्टेशन पार होते ही उन्होंने संभावित ख़तरे से आगाह कर दिया था, लेकिन झांसी डिवीजन के अधिकारियों ने उनसे कहा कि ट्रेन को वह जैसे-तैसे कानपुर तक ले जाएं, फिर देखा जाएगा. इसी से जाहिर है कि रेल अधिकारियों की नज़रों में रेलयात्रियों की जान की कीमत क्या है?

हादसे के बाद मंत्री-संत्रियों का घटनास्थल का दौरा, राहत और बचाव कार्य, मुआवजों का ऐलान, उच्चस्तरीय जांच के आदेश और जांच कमेटियां तो महज यात्रियों का ग़ुस्सा ठंडा करने का सेफ्टी वॉल्व हैं. ‘दोषियों को बख़्शा नहीं जाएगा’- वाला जुमला आजकल हर मर्ज की दवा है और विपक्ष द्वारा बात-बात पर इस्तीफा मांगना फैशन! लेकिन यूपी के सीएम अखिलेश यादव की सराहना करनी होगी कि उन्होंने देश के इस गर्माए राजनीतिक माहौल में भी रेल मंत्री सुरेश प्रभु का इस्तीफा मांगने के सवाल पर ठंडे दिमाग से कहा कि यह वक़्त राजनीति करने का नहीं बल्कि पीड़ितों को यथाशक्ति राहत पहुंचाने का है. उल्टे सत्तारूढ़ भाजपा के वरिष्ठ नेता और जिस इलाक़े में दुर्घटना घटी, वहां के सांसद मुरली मनोहर जोशी को इस हादसे में किसी बड़ी राजनीतिक साजिश की बू आ रही है.

राजनीतिक साजिशें तलाशने की बजाए आज चिंता इस बात की होनी चाहिए कि भारतीय रेलवे पूर्व में हुए भीषण हादसों से कोई सबक क्यों नहीं लेता? जांच कमेटियों की सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल कर अगले हादसे का इंतज़ार करना रेल मंत्रालय का शगल क्यों बन गया है? सुरक्षा दावों की पोल खुलने और आम यात्रियों का रेलवे पर भरोसा घटते जाने की किसी को परवाह क्यों नहीं है? क्या रेल महकमा इस बात से अनभिज्ञ है कि रेल हादसों का असर सड़क या हवाई हादसों की तुलना में कहीं ज़्यादा गहरा होता है?

रेल अधिकारी भले ही परवाह न करें लेकिन हमें अहसास है कि भारतीय रेल्वे से करोड़ों ज़िंदगियां हर पल जुड़ी रहती हैं. रेलवे अखिलभारतीय परिवहन का विशालतम और सुगम जरिया माना जाता है. रोज़ाना 2 करोड़ से अधिक लोग भारतीय ट्रेनों में चढ़ते-उतरते हैं लेकिन उनके गंतव्य तक पहुंचने की कोई गारंटी नहीं होती क्योंकि भारत में हर साल छोटी-बड़ी 300 से ज़्यादा रेल दुर्घटनाएं होती ही होती हैं. इनमें से 80% दुर्घटनाएं मानवीय भूल अथवा रेलतंत्र की चूक के चलते घटती हैं और साल दर साल इसमें कोई सुधार नहीं होता. न तो आधुनिक तकनीक का उपयोग करके तंत्र की चूक कम की जाती और न ही रेलकर्मियों को उच्चस्तरीय प्रशिक्षण देकर मानवीय भूल के अवसर कम किए जाते हैं.

पिछले दो दशकों की भीषण रेल दुर्घटनाओं पर नज़र डालें तो देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं मिलेगा जो रेल हादसों से अछूता हो. याद आता है 3 दिसंबर 2000 का रेल हादसा, जब हावड़ा-अमृतसर मेल पटरी से उतरकर मालगाड़ी पर चढ़ गई थी और 46 यात्री मारे गए थे. 22 जून 2001 को कोझिकोड के पास मंगलौर-चेन्नई एक्सप्रेस हादसे का शिकार हुई थी और 40 लोगों की मौत हो गई थी. 10 सितंबर 2002 को हुआ रेल हादसा भला कौन भुला सकता है जब कोलकाता-नई दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस बिहार में पटरी से उतर गई थी और 120 यात्री काल के गाल में समा गए थे. पश्चिम बंगाल में रेल पटरियों में तोड़फोड़ के कारण 28 मई 2010 को ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस बेपटरी हो गई थी और 148 मासूम रेलयात्री जान से हाथ धो बैठे थे. इसी साल जुलाई माह में उत्तरबंगा एक्सप्रेस वनांचल एक्सप्रेस से टकरा गई थी जिसमें 60 लोगों का भुर्ता बन गया था. भारतीय रेल्वे की शुरुआत से लेकर पुखरायां तक की रेल दुर्घटनाएं गिनाने जाएं तो मसि-कागद कम पड़ जाएंगे.

यह आज़ाद भारत के तीसरे रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री का ज़माना नहीं है कि रेल हादसा हो तो नैतिक आधार पर इस्तीफा दे दिया जाए. आज के भारत में इतने रेल हादसे होते हैं कि अगर रेल मंत्री इस्तीफा देने लगें तो सत्ता पक्ष के सभी सांसदों को पूर्व रेल मंत्री होने का तमगा मिल जाएगा. आज ज़रूरत मंत्रालय के बाबू लोगों, ज़मीनी अधिकारियों-कर्मचारियों और यात्रियों को एक साथ सिर जोड़ कर बैठने की है ताकि रेल्वे के लिए एक फुल-प्रूफ सुरक्षा मॉडल विकसित करके उसे अमली जामा पहनाया जा सके. इसका सुफल यह होगा कि हमारे यहां रेल हादसों में हर साल जो 15000 से ज़्यादा लोग मारे जाते हैं उनकी मौत के कलंक का टीका रेल्वे के माथे पर नहीं लगेगा और लोगों की यात्रा सचमुच मंगलमय हो सकेगी.

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