हमारे बच्चों का एक दोस्त है पाकिस्तान में. सोशल मीडिया के ज़रिये दोस्ती हुई. दोनों मुल्कों की कला और संस्कृति के साथ रहन सहन पर इन दोस्तों में अक्सर चर्चा होती रही है. साथ ही दोनों देशों में बढ़ रहे तनावों पर भी बच्चे चिंतन करते रहे हैं. लेकिन हाल की घटनाओं से बच्चों का दिल इतना आहत हुआ कि पाकिस्तान में बैठा वह बच्चा बेहद दुखी होकर संदेश भेज रहा है, लगता है इस बार लड़ाई हो ही जाएगी. हम तो उम्मीद कर रहे थे कि दोनों देशों के बीच की दरार खत्म हो जाएगी, लेकिन हालात तो खराब ही होते जा रहे हैं. हमारे बच्चों ने उड़ी में मारे गए सैनिकों का हवाला दिया और कहा कि आखिर बार बार ऐसा क्यों हो जाता है. फिर समझाया कि लड़ाई तो ऊपर के लोग करते हैं, आतंकवाद भी उन्हीं लोगों की देन है, भला इसमें हमारे-तुम्हारे जैसे लोगों का क्या कसूर. हमारी दोस्ती तो चलती ही रहेगी. उसने भोलेपन से लिखा वो तो ठीक है लेकिन पता नहीं क्यों सबलोग सारे पाकिस्तानियों को ही आतंकवादी मान लेते हैं. आर्टिस्ट लोग कितने अच्छे होते हैं, कितना टैलेन्ट है उनमें, भला आर्ट में हिन्दुतान-पाकिस्तान कहां से आ जाता है. हमारे बच्चों ने फिर समझाया, अरे यार, ये सब पॉलिटिक्स है. जैसी हवा देखी, वैसे इश्यू उठा दिए. देश में ऐसे तमाम बच्चे हैं, लोग हैं, परिवार हैं जिनका कोई न कोई दुनियाभर के कई मुल्कों में रहता है. अगर सीधे तौर पर नहीं तो कम से कम फेसबुक फ्रेन्ड तो ज़रूर है. सोशल मीडिया जैसे विशालकाय प्लेटफॉर्म पर साहित्य भी है, सियासत भी, संस्कृति भी और संवेदना भी, अपराध भी है और अविश्वास भी और सबसे बढ़कर रिश्तों की एक नई डोर भी. बेशक इस माध्यम ने तमाम मुल्कों के लोगों को जोड़ने का एक बड़ा काम किया है. लेकिन पिछले कुछ समय से बन रहे हालातों ने कम से कम हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के ऐसे ज़मीनी दोस्तों के मन में अजीब किस्म की दहशत पैदा कर दी है. आतंकवाद एक ऐसी अबूझ सी पहेली होती जा रही है जिससे आम आदमी आतंकित है और सरकारें लाचार. हमारी सरकार और प्रधानमंत्री मोदी के साथ साथ सेना भी मानती है कि किसी भी मुल्क का आम आदमी अमन पसंद होता है, वो युद्ध नहीं चाहता और आज के दौर में तो युद्ध की कल्पना भी अजीब सी लगती है. जहां पूरी दुनिया शांति की बात करती है, जब विकास के नए नए मॉडल नज़र आने लगे हैं, विकासशील देश तेजी से विकसित देशों की तर्ज़ पर चल रहे हैं, विज्ञान और तकनीक ने सारी दूरियां मिटा दी हैं और रिश्तों की नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं ऐसे में अगर आप युद्ध की बात करने के लिए मजबूर होते हैं तो कोई तो ठोस वजह होगी. पाकिस्तान में फल फूल रहे आतंकवादियों का चेहरा सबके सामने लगातार आता रहता है, उनके ज़हरीले बोल सब सुनते रहते हैं, बंदूक की भाषा दुनिया देख रही है. और तो और पाकिस्तान के हुक्मरानों को दुनिया के सामने उन्हें महिमामंडित करने में ज़रा भी शर्म नहीं आती. नवाज़ शरीफ़ की सारी शराफ़त की पोल खुल जाती है और खुद को आतंकवादी देश का सर्टिफिकेट देने में भी उन्हें देर नहीं लगती. उन्हें बुरहान वानी को युवा और उभरता हुआ नेता कहने में भी शर्म नहीं आती और हाफिज़ सईद की भाषा बोलने में वक्त नहीं लगता. ऐसे में क्या आप भारत को मजबूर नहीं कर रहे कि वो सख्त फैसले ले. अगर प्रधानमंत्री मोदी आपके साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं, आपका पूरा सम्मान करते हैं तो क्या आपका फर्ज़ नहीं है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मज़बूती से साथ दें. ऐसी आतंकी ताकतों को नेस्तनाबूद कर दें जो सिर्फ भारत में ही नहीं, आपके पाकिस्तान में भी तबाही मचा रही है, सैनिक स्कूल के बच्चों के खून की होली खेल रही है, कराची, लाहौर और आपके तमाम शहरों में बेगुनाहों को मार रही है. जाहिर है शरीफ़ साहब के शराफ़त वाले चेहरे की नकाब उतर चुकी है और ये तय है कि अब उन्होंने अपने ही मुल्क को आग के हवाले कर दिया है. जहां के छोटे छोटे बच्चे भी ये मानने को मजबूर होने लगे हैं कि अब तो युद्ध होकर रहेगा. सोशल मीडिया जहां इन मुल्कों को एक कर रहा है, एक दूसरे के करीब ला रहा है, वहीं वहां के हुक्मरान अपने अड़ियल रवैये, छोटी सोच और झूठे अहंकार से दोनों मुल्कों के लोगों के बीच फासले बढ़ा रहे हैं. अगर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना या शिवसेना बीच बीच में पाकिस्तान के कलाकारों को निशाना बनाने लगती है, उन्हें धमकियां देने लगती है, घर में घुसकर मारने तक की बात करने लगती है और उन्हें देश छोड़ने का अल्टीमेटम दे देती है तो बेशक इसे उनकी सियासत का ही हिस्सा माना जाता है. लेकिन नफ़रत का ये आलम आखिर क्यों पैदा होता है और क्यों बार बार पाकिस्तानी कलाकार, क्रिकेटर और संस्कृतिकर्मी इसके शिकार होते हैं, इसके बारे में क्या शरीफ साहब को नहीं सोचना चाहिए. जिन कलाकारों को और जिनके फ़न को हिन्दुस्तान में अहमियत मिलती है, जिनके मुरीद हिन्दुस्तानी ज्यादा हैं, उन्हें अगर कोई मुल्क छोड़ने को मजबूर करता है या फिर ऐसा कोई शिगूफा ही छोड़ता है तो क्या इसके लिए पाकिस्तानी हुक्मरान ज़िम्मेदार नहीं है? हर देश आतंकवाद का रोना रोता है. दुनिया के तमाम मंचों पर इसे लेकर प्रस्ताव पास होते हैं लेकिन कारगर कदम नहीं उठाए जाते. जाहिर है बयानबाज़ी और प्रस्ताव पास करने से आतंक खत्म नहीं होता, उसे उसी की भाषा में जवाब देने की ज़रूरत है. और ये भी तय है कि ये काम सिर्फ और सिर्फ भारत ही कर सकता है. ताकि आम आदमी के आपसी रिश्तों में दरार डालने वाला दहशतगर्दी का ये खेल हमेशा के लिए खत्म हो सके और हमारे बच्चे दुनिया के किसी भी देश के बच्चों से बेखौफ बात कर सकें, उन्हें अपना दोस्त बना सकें.