दिल्ली का जिक्र आते ही लूटियन की दिल्ली कौंधती है. साथ ही जब नाम पुरानी दिल्ली का आता है तो तंग गलियों के साथ भीड़ और जाम का नजारा सामने आने लगता है. लेकिन, करीब हजार साल के इतिहास को अपने साथ लेकर चल रही दिल्ली के 'दिल' का दर्द कोई समझ नहीं पाता. निगम का चुनाव हो या दिल्ली विधानसभा का, दिल्ली की धरोहरें अपने वजूद के लिए तरसती रहती हैं. दिल्ली की इमारतों को पुरातत्व विभाग का संरक्षण जरूर है. लेकिन, दिल्ली का इतिहास कभी न कभी सरकारों से हिसाब तो जरूर मांगेगा.

अभी दिल्ली नगर निगम चुनाव का माहौल है और निगम के हिस्से में भी दिल्ली के इतिहास को बचाने का जिम्मा आता है. ज्यादातर इमारतों की देखरेख पुरातत्वविभाग के जिम्मे है लेकिन, इसके बावजूद पुरानी दिल्ली नगर निगम की लापरवाही में खस्ताहाल होते जा रही है. 'शाहजहानाबाद' का ये हिस्सा अपनी असल पहचान खो चुका है और लालफीताशाही की लापरवाहियों का जीता-जाता सबूत बन चुका है.

पुरानी दिल्ली में दरियागंज से लेकर यमुना के किनारे तक हर कदम में इतिहास इतराता है. कहीं मुगलों की शान-ओ-शौकत के चिन्ह हैं तो कहीं गालिब के शेर दिल को छूने को बेकरार रहते हैं. लेकिन, इनपर कई परतें जमती जा रही हैं. पिछले दिनों में इतिहास इन परतों में ज्यादा दबता गया है. आश्चर्य़ की बात है कि किसी सरकार या पार्टी के पास अपने चुनावी घोषणा पत्र में दिल्ली के इस रूप को बचाने की योजना नहीं है.

चावड़ी बाजार की हजार से ज्यादा हवेलियां हों, डेढ़ सौ साल से भी पुराना टाउनहॉल हो या फिर चावड़ी बाजार, दरिया गंज, पुरानी दिल्ली के अलग-अलग दरवाजे, कश्मीरी गेट, चांदनी चौक, बल्लीमारन, गली दरीबा, पंक्षी बाजार और मीना बाजार...न जाने और कितने ऐतिहासिक स्थान. इन सब स्थानों पर अवैध कब्जे हो चुके हैं. कहने की बात नहीं है कि किनके 'इशारे' पर यह कब्जे हुए हैं.

इस पूरे इलाके से नगर निगम मोटी रकम टैक्स के तौर पर वसूलता है. चाहें वह प्रॉपर्टी टैक्स हो या फिर व्यापार कर. इन ऐतिहासिक धरोहरों और बाजारों को बचाने के लिए पिछले कई सालों में कोई प्रयास नहीं किया गया है. जबकि हमारे देश में ही ऐसे स्थान हैं जहां ऐतिहासिक बाजारों को उसके पुरातात्विक महत्व के साथ बचाया गया है. उसमें जयपुर औऱ हैदराबाद का नाम सबसे आगे आएगा.

इसके साथ ही इतिहास को बचाने की मुहिम में कई ऐसे तथ्य उभर कर सामने आएंगे जो दुनियभर के पर्यटकों को आकर्षित कर सकते हैं. इसमें यहां की इमारतें, बाजार, खान-पान, शान-ओ-शौकत और कई आयाम हैं. अब देखना यह है कि सियासत की पाटों में पिस रही दिल्ली की फिक्र किसी को होती है या फिर ऐसे ही धीरे-धीरे कर के यहां का इतिहास दम तोड़ देगा ?