जिन्हें कानून की भाषा में जेसीएल कहते हैं, उन पर इन दिनों फिर से चर्चा चल रही है. जेसीएल यानी जुवेनाइल इन कॉन्ट्रावेंशन विद द लॉ. मतलब कानून का उल्लंघन करने वाले किशोर. कठुआ रेप केस में आठ आरोपियों में एक किशोर भी है. इसे पुलिस फाइलों में जेसीएल लिखा गया है और नन्ही बच्ची आसिफा की मौत के पीछे उसी का हाथ बताया जाता है. इससे पहले 2012 में दिल्ली गैंग रेप में भी सबसे निर्दयी अपराधी जुवेनाइल ही था. भले ही उसे सबसे हल्की सजा मिली थी लेकिन उस एक केस ने जेजे एक्ट (जुवेनाइल जस्टिस एक्ट) में ही तब्दीली कर दी थी. 2015 के इस नए कानून के तहत अब जघन्य अपराध करने वाले 16 से 18 साल तक के किशोरों को सात साल या उससे अधिक की जेल की सजा दी जा सकती है. जघन्य अपराध कौन से हैं- रेप, हत्या, डकैती और एसिड अटैक.


टीनएजर्स कितने ही मामलों में अपराधी पाए गए हैं. इसी हफ्ते दिल्ली में एक सिगरेट को लेकर एक लड़के की हत्या हो गई जिसमें दो एडल्ट्स के साथ एक टीनएजर भी शामिल था. फिर देश भर में रेप की कई खबरों में माइनर्स शामिल पाए गए हैं. बच्चियां नन्ही हैं, कोई 12 साल की, तो कोई 8 साल की. मामला बने, सजा मिले या रिफॉर्म के लिए भेजा जाए- पर बात यह है कि एडल्ट्स के साथ-साथ टीनएजर्स भी रेप कर रहे हैं. हैरेसमेंट में वे भी इंवॉल्व हैं. लड़की बड़ी हो या छोटी, उसे रौंदने में वे भी किसी बड़े से कम नहीं. कई बार उनसे बीस ही हैं.


डेटा देने से बात पक्की होती है, इसलिए देना ही पड़ता है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2017 के आंकड़े कहते हैं कि पिछले साल औरतों, लड़कियों के रेप, गैंग रेप करने या रेप की कोशिश करने में उन्नीस सौ से अधिक जुवेनाइल्स के खिलाफ केस दर्ज किए गए. इनमें मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा मामले सामने आए. कुल मिलाकर 442 केस. मतलब बच्चे बड़े हो रहे हैं, बड़े उन्हें अपनी तरह का व्यवहार करना सिखा रहे हैं. कुसंगत का जो असर होता है, उसे इन आंकड़ों में देखा जा सकता है. फिर जुवेनाइल जस्टिस एक्ट को बदल दीजिए- चाहे नए कानून बना दीजिए- अपराध की प्रवृत्ति नहीं रुकती.


लोग कहते हैं, रेप पर राजनीति मत करो. लेकिन रेप राजनीति से जुड़ा हुआ ही है. इसमें कोई दो राय नहीं कि रेप सेक्स नहीं है. यह सत्ता या पावर का प्रदर्शन है. इस प्रदर्शन को बचपन से सिखाया जाता है. सिखाया जाता है कि लड़कियां, औरतें दूसरे दर्जे की नागरिक हैं. वे मर्दों से हमेशा नीचे हैं. आप ऊपर बने रहना चाहते हैं. इसीलिए बार-बार इसे जताते-थोपते हैं. लगातार औरत को सीख देते हैं- उन्हें घरों के भीतर रहना चाहिए. जींस या आधुनिक कपड़े नहीं पहनने चाहिए. मोबाइल नहीं रखना चाहिए. किसी से दोस्ती नहीं करनी चाहिए. कम उम्र में शादी कर देनी चाहिए.


पिछले दिनों एक अंग्रेजी वेबसाइट ने रेप कल्चर पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी. डॉक्यूमेंट्री हरियाणा पर बेस्ड थी लेकिन यह किसी भी राज्य का सच है. डॉक्यूमेंट्री में मर्द-औरतों ने जो कहा, वह मायने रखता है लेकिन जो स्कूली बच्चों ने कहा, वह डरा देने वाला है. स्कूली लड़कों ने कहा- रेप में लड़कियों की भी उतनी ही गलती है, जितनी लड़कों की. या लड़कियों को बिना काम के घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए. या लड़कियों को जींस नहीं पहननी चाहिए क्योंकि इससे लड़के आकर्षित होते हैं. जाहिर सी बात है, ऐसे बयान देने वाले किसी दिन गुस्से में किसी लड़की को मजा चखाने से बाज नहीं आएंगे. उनकी कथनी, उनकी करनी को विद्रूप बनाएगी.


रेप या कोई भी अपराध सामाजिक संरचना की ही देन होता है. 60 के दशक के अंत में न्यूयॉर्क में स्टूडेंट्स और फेमिनिस्ट्स ने पर्सनल इज पॉलिटिकल नाम का नारा दिया था. इसका मतलब यह था कि व्यक्तिगत अनुभव और व्यापक सामाजिक-राजनीतिक स्ट्रक्चर्स में गहरा संबंध है. इसके बाद अमेरिकी महिलावादी सूजन ब्राउनमिलर ने 1975 में अपनी किताब अगेंस्ट आवर विल: मेन, विमेन एंड रेप में कहा कि लिंग, धर्म, जाति, वर्ग और परिवार और सामाजिक संरचनाओं में असमानता के कारण रेप होता है. अपने बच्चों में इस गैर बराबरी के बीज हम बचपन से रोपते हैं. लड़कियो से काम करवाते हैं, लड़कों से नहीं. लड़कों को पढ़ाने के लिए पैसा जोड़ते हैं. लड़कियों की शादियों के लिए पैसे जमा किए जाते हैं. लड़कियों के लिए गुड़िया, खाना पकाने के लिए खिलौने खरीदते हैं. लड़कों के लिए बंदूक वगैरह. लड़कियों को नाजुक बनाए रखते हैं, लड़कों को टफ. फैमिली में पति, लड़कों वगैरह के लिए व्रत रखते हैं. तो, बात-बात में नन्हे बच्चों को भी सिखाते रहते हैं- लड़का-लड़की बराबर नहीं. लड़के सिर माथे पर हैं, लड़कियां जमीन पर.


सिर चढ़े लड़के लड़कियों पर चढ़ाई करने पर उतारू हो जाते हैं. चाइल्ड राइट्स के लिए काम करने वाले तमाम तर्क देते हैं. इस पर पूरी वैज्ञानिक स्टडी है कि किशोरों का दिमाग कैसे काम करता है. न्यूरोसाइंस की मदद से साबित किया जाता है कि 18 साल से पहले दिमाग अच्छी तरह से विकसित नहीं होता, इसलिए उस समय किए गए अपराध, जान-बूझकर किए गए अपराध नहीं माने जा सकते. लेकिन अपराध, अपराध ही है. 2011 में लंदन में हुए दंगों में जब किशोरों ने जमकर लूट-पाट, मार-कुटाई की तब उस समय के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने कहा था कि अगर बच्चे बड़ों जैसा क्राइम करते हैं तो उन्हें बड़ों की सी सजा भी दी जानी चाहिए. बहुतों को कैमरून की यह बात पची नहीं थी. लेकिन इस संदर्भ में चर्चा को बल जरूर मिला था.


टीनएजर्स बड़ों जैसे क्राइम कर रहे हैं, इसीलिए उन्हें सजा भी बड़ों जैसी दी जा रही है. उन्हें अपराधी बनने से रोकने के लिए बड़ों को ही अपना व्यवहार बदलना होगा. अपने पौरुष का दम भरना छोड़ना होगा. औरत को दबाना भी छोड़ना होगा. वरना, आपने सभ्यता की वर्णमाला भी अभी नहीं सीखी है. इसके बिना बच्चों को अपराधी बनने से नहीं रोका जा सकता.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)