दुनिया भर के देशों में कोरोना के कारण जहां लोग घरों में दुबक गए हैं वहीं ऑनलाइन गतिविधियों में तूफान जैसी तेजी दिखी है. यूनिवर्सिटी के छात्र, प्रोफेसर या विभिन्न दफ्तरों के लोग जिनका काम ऑनलाइन संभव है, हो ही रहे हैं. लेकिन इन सब के बीच कई संस्थान, सेलेब्रिटी, संग्रहालय और आम लोग सोशल मीडिया पर बेतहाशा सक्रिय हो रहे हैं.


शुरुआती दौर में खाना बनाने और खाने की तस्वीरें अपलोड करने से शुरू हुआ मामला अब फेसबुक और इंस्टाग्राम लाइव तक पहुंच चुका है. फेसबुक ने लाइव का ऑप्शन साल 2016 में शुरू किया था और पिछले साल तक ऐसा लग रहा था कि ये ऑप्शन धीरे-धीरे बंद हो सकता है क्योंकि इसे लेकर शुरुआती उत्साह के बाद सबकुछ ठंडा पड़ गया था.


कोरोना ने ऑनलाइन बिजनेस में जो बढ़ोतरी की है उसमें सबसे अधिक फायदे में जूम जैसे एप हैं लेकिन फेसबुक लाइव जैसे निष्क्रिय विकल्प पर लाइव्स की बाढ़ आ गई है. ये लाइव फेसबुक से लेकर इंस्टाग्राम तक फैले हुए हैं और कुछ समय पहले तक जहां पत्रकार इस टेक्नोलॉजी का प्रयोग कभी कभार ही किया करते थे अब उसका उपयोग हर दिन हो रहा है. ज्यादातर इंटरव्यू अब फेसबुक लाइव या जूम के जरिए ही किए जा रहे हैं ताकि लोगों को वीडियो दिखाए जा सकें.


दुनियाभर में आई Live की बाढ़
ऐसा नहीं है कि फेसबुक और इंस्टाग्राम लाइव की बाढ़ सिर्फ भारत में आई है. अमेरिका हो या यूरोप हो. लाइव करने की प्रवृत्ति लॉकडाउन के समय में हर देश में बढ़ी है. अमेरिका की लगभग सभी आर्ट गैलरियों मसलन म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट और गूगनहाइम म्यूजियम ने भी लाइव किए हैं. अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से. कई हॉलीवुड सेलेब्रिटियों ने भी लाइव किए हैं और अपनी बात रखी है लोगों के सामने. कई ऐसे लोग भी लाइव हुए हैं जिनसे आप कभी उम्मीद नहीं करते थे कि वो लाइव भी आ सकते हैं.


भारत में और खासकर हिंदी पट्टी में कवियों और लेखकों ने भी इस दौरान कई लाइव किए हैं. राजकमल और वाणी प्रकाशन के अलावा हिंदी कविता नाम का एक मंच भी लगातार लाइव कर रहा है. साथ ही कई लेखक कवि भी अपने अपने स्तर पर लाइव कर रहे हैं जहां कविता पाठ से लेकर कहानी पाठ और डांस की प्रैक्टिस तक शामिल है.


आखिर लाइव क्यों कर रहे हैं लोग इतना
कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति भी की है कि ये कोई तरीका नहीं है कि हर आदमी लाइव करे. ये अपने आपमें गैर जिम्मेदाराना और असहिष्णु बात है कि आप किसी से ये कहें कि आप लाइव क्यों कर रहे हैं. ये कुछ वैसा ही है कि आप बोल क्यों रहे हैं. बोलने की आज़ादी सबको है. बहस ये हो सकती है कि आप लाइव में बोल क्या रहे हैं. वो कितना मौजूं हैं. लेकिन मैं फिलहाल ये लिखने की कोशिश कर रह हूं कि आखिर लाइव क्यों कर रहे हैं लोग इतना.


लॉकडाउन या कहिए कि घर से बाहर नहीं निकल पाने की अघोषित बंदिश एक लक्षण है लेकिन थोड़ा पीछे चलते हैं. हुआ क्या है. हुआ ये है कि पिछले 100 सालों में ये एक ऐसा अभूतपूर्व समय है जो हम सब पूरी दुनिया में देख रहे हैं. पिछले 50 सालों में भारत जैसे देश ने एक बड़ा युद्ध तक नहीं देखा है जब सबकुछ बंद हो जाता है. लोग डर जाते हैं. ये एक अदृश्य डर है जहां आपको नहीं पता कि आप कब और कैसे बीमारी का शिकार हो सकते हैं.


डर
मेरी समझ में लोगों खासकर रचनाकारों यानी कवियों लेखकों और सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल रहने वाले लोगों के मन में ये डर ज्यादा है कि अगर कुछ हो गया तो उनकी बात लोगों तक पहुंच नहीं पाएगी. वो कहीं रह जाएगी. ये डर एक बड़ा कारण है कि वो लोगों तक पहुंचना चाह रहे हैं. ये एक मास साइकोलॉजी भी है कि हम सब लोग कुछ कहना चाह रहे हैं क्योंकि सबके मन में डर है कि पता नहीं कल क्या होगा.


यही कारण है कि किसी अभिनेता की मृत्यु पर लगभग पूरा समाज दुखी होने लगता है. इरफान अमिताभ बच्चन जैसे लोकप्रिय सितारे नहीं थे लेकिन उनकी मृत्यु को लोगों ने कितना ह्दय से लगाया है ये भी अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना रही है. हर किसी को लग रहा था कि इरफान के साथ उनका भी कुछ चला गया है. ये कहकर मैं इरफान के निधन को कम नहीं कर रहा हूं बल्कि ये कहना चाहता हूं कि लोग लॉकडाउन के कारण थोड़े और संवेदनशील हुए हैं चीजों को लेकर ऐसा मुझे लगता है.


लाइव अच्छे या बुरे
कवि लेखकों में खासकर संवेदना थोड़ी अधिक होती ही है तो वो इसे बाकी लोगों से बांटकर संभवत अपना दुख हल्का करना चाहते हों. थोड़ी खुशी लाइव कर के भी उन्हें मिलती हो. ये सारे कारण हो सकते हैं कि वाणी की प्रकाशक अदिति माहेश्वरी के शब्दों में ‘लाइव स्टार्म’ आ गया है. ये एक तरह से अच्छी बात है. हो सकता है कि सारे लाइव अच्छे न हों. लेकिन ये भी हो सकता है कि कुछ लाइव बहुत अच्छे हों.


पिछले दिनों में मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि कवि विनोद कुमार शुक्ल को सुनने का मौका मिलेगा और वो राजकमल के पेज से लाइव होंगे. ऐसा लाइव बरसों में कभी एक बार होता है. उन्होंने जो कहा वही कविता था और उसके बाद उन्होंने कविता पढ़ी. ये सुख उन्हीं लोगों को अब तक मिलता रहा होगा जिन्होंने साक्षात विनोद शुक्ल को सुना होगा. लॉकडाउन के कारण एक बड़ा वर्ग विनोद कुमार शुक्ल के व्यक्तित्व के इस पहलू से भी तो परिचित हुआ कि वो आम बात कहते हुए भी कविता ही कहते हैं और ये साधना कितना कठिन है.


हिंदी कविता के पन्ने पर ये लेख लिखने से ठीक पहले डॉक्टर संजय चतुर्वेदी को सुन रहा था जिन्होंने हिंदी कविता के बारे में जो कहा है वो किसी शोधकर्ता के लिए एक बेहतरीन लेक्चर हो सकता है. जिस तरह से उन्होंने हिंदी कविता में तमाम संस्कृतियों की मनीषा को न हटाए जाने और इसे हटाए जाने की कोशिशों को लेकर हुई राजनीति से बात शुरू करते हुए अपनी बात को कविता के पद लालित्य पर ले गए उससे हमें एक ऐसे बौद्धिक के बारे में पता चला जिन्होंने घोषित रूप से कोई किताब नहीं छपवाई है. जो अपनी किताबें किसी आधी रात में ऑनलाइन डाल देते हैं ताकि लोग पढ़ें. ये उनका अपने किस्म का विद्रोह है.


पेशे से डॉक्टर संजय चतुर्वेदी की कविताओं को किसी पुस्तक की दरकार नहीं. वो अपने आप में सक्षम हैं लेकिन इस लाइव से कम से कम उनकी समझ उनकी दृष्टि और उनके विश्लेषणात्मक ताकत का आभास तो मिलता है.


लाइव की खासियत
हो सकता है सौ में से दो या तीन ही लाइव बेहतरीन मिलें हम सबको लेकिन यही तो किताबों के साथ भी है. कई किताबों में से एकाध ही तो किताब दृष्टि देती है. इन फेसबुक इंस्टाग्राम लाइवों में सबसे अच्छा यही है कि आपके हाथ में है चाबी. मन है तो सुनें नहीं मन है तो न सुनें. लेकिन इन सब में काम की बात की मिलेगी ये ज्यादा अपेक्षा होगी. ये भी बाकी चीज़ों जैसा ही है. कुछ काम की बातें होंगी. ढेर सारी बेकार की और ऐसे हर समय में कबीर को याद कर लें. सार सार को गहि रहे थोथा देई उड़ाय.


मेरी रूचि आर्ट में हैं तो मैंने इस समय में जो सबसे अधिक आनंद लिया है वो जेरी साल्ट्ज, हांस उल्रिच ओब्रिस्ट और क्लाउस बिसेनबाच के लाइव्स का जो आर्ट पर लाइव करते हैं. जेरी साल्ट् जाने माने आर्ट क्रिटिक हैं जबकि हांस उल्रिच और बिसेनबाच दुनिया की बेहतरीन आर्ट गैलरी सरपेन्टाइन और लांस एजेंल्स म्यूजिमय ऑफ आर्ट में डायरेक्टर हैं. जिनकी आर्ट की गहरी समझ से इस लॉकडाउन के दौरान आम जनता भी फायदे में रही है.


आलोचना करना आसान है और उसके लिए बहुत कुछ है लेकिन इन लाइव कार्यक्रमों को ये कहकर खारिज करना कि कठिन समय में ये क्या लगा रखा है कुछ वैसा ही है कि हम तो हर बात से खार खाए बैठे हैं. लाइव कार्यक्रमों के कंटेट पर बात हो आलोचना हो तो बात आगे बढ़ने की भी गुंजाइश बन सकती है.



(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)