पुलिस, पत्रकार, फायर ब्रिगेडकर्मी और डॉक्टर ये कुछ ऐसे पेशे हैं जो किसी की मौत, किसी के दर्द या किसी की बर्बादी को करीब से देखते हैं. ऐसे व्यवसायों से जुड़े लोग अपने करियर में न जाने कितनी लाशें देखते होंगे. आग में झुलसी हुई लाशें, बम विस्फोट में टुकड़े टुकड़े हो चुकी लाशें, ट्रेन से कटकर आईं लाशें, मलबें में दबकर आईं लाशें, फांसीं पर लटकी लाशें, गोली लगीं लाशें या गला कटीं लाशें. जिनके लिये आए दिन इस तरह की लाशें देखना आम जीवन का हिस्सा हो, उनके दिल पर क्या गुजरती होगी? क्या वे उन लाशों को देखकर दुखी होते होंगे? मरने वालों के परिजनों के प्रति उनमें सहानुभूति होगी? जिन हालातों में वो शख्स जिंदा आदमी से लाश में तब्दील हुआ क्या उसे महसूस करते होंगे? मेरा अपना आंकलन है कि आमतौर पर ऐसे लोग पत्थर दिल हो जाते हैं या रोबोट की तरह बर्ताव करते हैं. संवेदनाएं सुन्न हो जाती हैं. लेकिन ऐसा अगर नहीं हो तो ये तमाम लोग शायद अपना काम भी ठीक से न कर पाएंगे.

1999 में मैंने पहली बार टीवी रिपोर्टिंग करते वक्त एक हादसा कवर किया था, जिसमें कई लोगों की मौत हो गई थी. घाटकोपर में एक पहाड़ी पर लैंड स्लाइड हुई थी जिसकी वजह से उसपर बनी झुग्गियों में कई लोगों की मौत हो गई. मैं राजावाड़ी अस्पताल के मुर्दाघर में मृतकों का आंकड़ा लेने के लिये गया. देखा तो एक ओर कतार से कई बच्चों की लाशें पडीं है. एक ओर महिलाओं की और दूसरे कोने में पुरूषों की. किसी का सिर फटा हुआ था तो किसी का सिर था ही नहीं. किसी के हाथ नहीं थे तो किसी के पैर नहीं. जिंदगी में पहली बार एक साथ इतनी लाशें और इस बुरी हालत में मैने देखीं थीं. मैं उस मंजर की कल्पना करके कांप गया जब ये मौतें हुईं थीं. उस रात मैं सो नहीं सका. आंखों के सामने बार बार वही लाशें आ रहीं थीं. रोना भी आ रहा था. उसके बाद बीते 20 सालों में आग लगने, इमारत गिरने , बाढ़ आने जैसे कई हादसे और मुंबई में हुए बम धमाके कवर किये. हर बार क्षत-विक्षत लाशें आंखों के सामने से गुजरतीं. कुछ देर के लिये मन दुखी होता लेकिन फिर संभल जाता. काम का दबाव इतना रहता कि ज्यादा सोचने का वक्त नहीं मिलता.

अभी बिहार के एक बच्चे की लाश देखी तब से मन बेचैन है. ठीक उसी तरह जैसे राजावाडी अस्पताल में पहली बार हुआ था. पता नहीं कि आज नींद आएगी या नहीं लेकिन एक बात खुद में जरूर देख रहा हूं कि अपने 40 साल की उम्र में इतनी लाशें देखने के बाद अब भी मन विचलित होता है, दिल पसीजता है और गुस्सा आता है. मेरी नजर में ये हर पत्रकार के लिये जरूरी है. अगर ऐसा नहीं होता है तो हम इंसान नहीं रह जाएंगे. संवेदना का जिंदा रहना जरूरी है. ये आसान नहीं है. मुझे पता है कि फील्ड में काम करते वक्त तनाव की वजह से जेहन में संवदनाओं के लिये जगह नहीं होती, लेकिन काम खत्म होने के बाद जिनकी मौतों को कवर किया है, उनके बारे में उनके परिवार के बारें में थोड़ा जरूर सोचें. कल्पना करें कि उनकी जगह पर आप होते तो क्या महसूस करते.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)