जिसका डर था वही बात हो गई! मुख्यमंत्रियों के साथ अपनी पांचवीं वीडियो कांफ्रेंस में पीएम नरेंद्र मोदी ने चेतावनी दी थी कि कोरोना महामारी किसी भी सूरत में भारत के गांवों तक नहीं फैलनी चाहिए, वरना इसे संभालना मुश्किल हो जाएगा. पीएम की चिंता के पीछे बड़ी वजह थी- गांवों में स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों का अभाव. मालूम हो कि कोरोना वायरस के उपचार और इसका प्रसार रोकने के लिए जिस उच्च स्तर की जांच, परीक्षण और अस्पताल सुविधाएं दरकार हैं, उससे भारत के कई बड़े शहर भी वंचित हैं.

स्थिति यह है कि लाखों प्रवासी मजदूर या तो अपने गांव पहुंच चुके हैं या फिर गांव के रास्ते में हैं. इन मजदूरों को श्रमिक ट्रेनों और विशेष बसों में बिठाने से पहले इनका कोरोना परीक्षण अपेक्षित था, जो इनकी विशाल संख्या को देखते हुए लापरवाही, उदासीनता और अफरातफरी की भेंट चढ़ चुका है. बीती 10 मई के बाद जितने भी प्रवासी गांवों को निकले हैं, उनमें से अधिकतर की न तो स्क्रीनिंग की गई और न ही किसी के पास संक्रमित होने का प्रमाणपत्र था.

लाखों भूखे-प्यासे मजदूर पैदल या ट्रकों में चढ़कर भी किसी तरह अपने गांव जा पहुंचे हैं. रास्ते में उनकी जांच-पड़ताल का सवाल ही नहीं उठता. अगर हम तुलनात्मक रूप से बेहद सीमित परीक्षण क्षमता वाले राज्य बिहार का ही उदाहरण लें तो संक्रमित और मृतकों की संख्या वहां तेजी से बढ़ रही है. यूपी और मध्य प्रदेश भी इस मामले में ज्यादा पीछे नहीं हैं.

उत्तर और मध्य भारत के गांवों में भी पहुंचा वायरस यूपी की बात करें तो बाराबंकी में 14, जौनपुर में 15, बरेली में 18, वाराणसी में 4 और सिद्धार्थ नगर में कोरोना के 8 ताजा मामले उन प्रवासियों के हैं, जो मुंबई-ठाणे के धारावी, मुंब्रा, कलवा, कांदिवली और मालाड जैसे उप-नगरों से ट्रकों, ट्रेनों और बसों में सवार होकर अपने इलाकों में पहुंचे. मुंबई के इन इलाकों में कोरोना का संक्रमण खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है. पिछले हफ्ते बस्ती जिले में 36 लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे और ये सभी मुंबई से गोंडा जाने वाली ट्रेन से घर पहुंचे थे. उत्तर भारतीय राज्यों में कोरोना के जो भी नए मामले आ रहे हैं, उनमें अधिकतर दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र तथा अन्य प्रदेशों से आए व्यक्ति शामिल हैं.

साफ है कि कोरोना का वायरस विपरीत पलायन कर रहे प्रवासियों के साथ उत्तर और मध्य भारत के कस्बों और गांवों में भी पहुंच गया है! इसका नतीजा यह हुआ है कि कल तक जो जिले ग्रीन या ओरेंज जोन में थे, वे रेड जोन में आ गए हैं. चिंता की बात यह है कि लाखों की संख्या में लौटे प्रवासियों के बीच कोरोना का संक्रमण कितने लोगों तक फैल चुका होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.

काबू करने के लिए स्वास्थ्य-तंत्र ही मौजूद नहीं विशेषज्ञों का मानना है कि जिस पैमाने पर महानगरों से प्रवासी लौट रहे हैं, उससे पश्चिम बंगाल और उड़ीसा समेत भारत के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी कोरोना पॉजिटिव लोगों के मामले बढ़ सकते हैं. लेकिन इन मामलों पर काबू पाने के लिए स्वास्थ्य-तंत्र ही मौजूद नहीं है.

पश्चिम बंगाल की त्रासदी दोहरी है, क्योंकि उसके अधिकांश क्षेत्र को हाल में समुद्री तूफान ‘अमपन’ ने भी तबाह कर दिया है. भारत की ग्रामीण आबादी के लिए स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं प्राप्त करने हेतु प्रथम संपर्क बिंदु प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) जरूरत से 22% और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) 30% कम हैं. पश्चिम बंगाल, यूपी, बिहार, झारखंड, राजस्थान और मध्य प्रदेश में इनकी स्थिति दयनीय है. ऐसे में गांव लौट रहे मजदूरों को भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों के अनुरूप सेवाएं देने में ये अधिकांश केंद्र असमर्थ साबित हो रहे हैं.

ऊंच-नीच और छुआछूत का भेदभाव एक बड़ी समस्या गांव पहुंचने के बाद इन प्रवासियों को आइसोलेशन और क्वॉरंटीन करने की भी है. ग्रामीण भारत में जड़ें जमाए बैठे जाति और धर्म के भेदभाव ने कोढ़ में खाज का काम किया है. ग्राम पंचायतों और अन्य सरकारी भवनों में 14 दिन के लिए रखे गए प्रवासियों में भी ऊंच-नीच और छुआछूत का भेदभाव खुलकर सामने आ रहा है.

कई स्थानों से एक-दूसरे के ऊपर खाना फेंकने, हैंडपंप से पानी न भरने देने, खाना न बांटने देने जैसे मामले सामने आए हैं. दूसरी तरफ यूपी के एक गांव में तो दबंग ग्राम-प्रधान के करीबियों ने क्वॉरंटीन की अवस्था में ही शराब-पार्टी की थी. आज हो यह रहा है कि होम क्वॉरंटीन की अनुमति मिल जाने की आड़ में गांव के प्रभावशाली लोग परदेस से लौट कर सीधे अपनी रसोई में घुस जा रहे हैं!

ग्रामीण जन अब पूरी तरह रामभरोसे देखा जाए तो भारत के गांवों में जहां एक तरफ दहशत का माहौल है, वहीं बीते दो माह से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए मास्क लगाए बैठे ग्रामवासी हथियार डाल चुके हैं. बसों में भर कर रोजाना आ रहे अपने ही गांव वालों को वे संदेह और आशंका की नजरों से देख रहे हैं कि पता नहीं उनका कौन सगा रिश्तेदार कोरोना पॉजिटिव निकल जाए! किराना की दुकानों, चाय की गुमटियों और मंडी व सब्जी बाजारों पर गांव वालों का कोई वश नहीं है. वहां नेगेटिव-पॉजिटिव का भेद खत्म हो चुका है. अब बहुत देर हो चुकी है. यह वायरस लोगों के साथ चलता है.

बड़ी परेशानी यह है कि गांवों और कस्बों में स्क्रीनिंग, आइसोलेशन और टेस्टिंग की सुविधा नहीं है, जिसकी ओर शासन-प्रशासन को पहले से भी अधिक गंभीरता से ध्यान देना चाहिए, जो नजर नहीं आ रहा है. यह ग्रामीण भारत की चिंताजनक तस्वीर पेश करता है. ग्रामीण जन अब पूरी तरह रामभरोसे हो गए हैं!

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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