वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश पर अमल की महत्वपूर्ण घोषणा की थी. उनका कहना था कि आगामी खरीफ सत्र से ( जहां फसल अक्टूबर में बाजार में आती है ) किसानों को लागत पर पचास फीसद का मुनाफा दिया जाएगा. उनका यह भी कहना था कि चालू रबी मौसम में भी किसानों को ऐसा ही लाभ मिल रहा है. वित्त मंत्री की घोषणा पर जमकर तालियां पीटी गयी थीं और मेजे थपथपाई गयी थी. मोदी सरकार की तरफ से दावा किया गया था कि जो देश में पिछले 70 सालों से नहीं हुआ वह काम उनकी सरकार ने कर दिखाया है. बजट के बाद दिल्ली में मोदी सरकार ने बड़ा किसान सम्मेलन बुलवाया. इसमें किसानों, किसान नेताओं, उद्दोगपतियों, अर्थशास्त्रियों और जानकारों ने दो दिन तक इस बात पर माथापच्ची की कि आखिर कैसे किसानों की आय 2022 तक दुगुनी की जा सकती है. सम्मेलन में खुद प्रधानमंत्री आए जिन्होंने बताया कि उनकी सरकार किसानों का दर्द दूर करने के लिए क्या क्या उपाय कर रही है. यहां भी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने को बड़ी उपलब्धि बताया गया. सवाल उठता है कि क्या वास्तव में सरकार किसानों को उनकी पूरी लागत पर पचास फीसद मुनाफा देने जा रही है? क्या वित्त मंत्री के दावे में दम है कि किसानों को मौजूदा रबी में ही लागत पर पचास फीसद का मुनाफा मिल रहा है? इसकी पड़ताल करते हैं.


चने की बिक्री पर किसान को हो रहा है 2 हजार रुपये घाटा


रबी की मुख्य फसलें गेहूं, मसूर, चना और सरसो हैं. इनमें से चना और मसूर मंडियों में आना शुरू हो गया है. अगर उत्तर भारत की बात करें तो मसूर मध्यप्रदेश में और चना राजस्थान में मुख्य फसल है. राजस्थान में कोटा की भामाशाह कृषि अनाज मंडी में चने की आवक तेज हो गयी है. यहां चने के ढेर ही ढेर लगे हैं और हर ढेर पर बिचौलिये खुली नीलामी लगा रहे हैं. चने का न्यूनतम खरीद मूल्य 4400 रुपये प्रति क्विंटल हैं, लेकिन यहां आमतौर पर बोली ही 3200 से शुरू होती है और 3600 रुपये प्रति क्विवंटल पहुंचते पहुंचते दम तोड़ देती है. बहुत अच्छी क्वालिटी का चना ही 3600 तक पहुंच पा रहा है. चना बेचने आने वालों में किसान रामकरण भी हैं. वह बीस क्विंटल चना लेकर आए हैं. उनके हिसाब से उन्हें कम से कम लाख रुपए तो मिलने ही चाहिए लेकिन उनका चने की 3200 से ज्यादा की बोली नहीं लगती है यानि उनके हाथ आए हें सिर्फ 64 हजार रुपये. वह कहते हैं कि अगर सरकारी खरीद के हिसाब से भी चना बिका होता तो उन्हे एक लाख के आसपास पैसा मिलता. रामकरण बताते हैं कि एक बीघा में औसत रुप से दो क्विंवटल चना होता है. वह आगे हिसाब देते हैं कि हजार रुपये का बीज, खाद और यूरिया मिलाकर 1300 रुपये, जुताई के दो हजार, कटाई के एक हजार, कीटनाशक के एक हजार, पिलाई यानि सिंचाई के 750 हजार , मंडी तक ले जाने के 500, घरवालों की मजदूरी के 800 रुपये आदि आदि मिलाकर नौ हजार रुपये खर्च हो जाते हैं. अब 4400 रुपये की सरकारी खरीद के हिसाब से चना बिकता तो दो क्विंवंटल के 8800 रुपये मिलते. इस तरह करीब 200 रुपये का घाटा होता ( जिसे वह सह जाते ) लेकिन चना बिका 3200 प्रति क्विवंटल के हिसाब से 6400 रुपये का और इस तरह घाटा हो गया दो हजार रुपये का.


यह तो रहा किसान रामकरण का हिसाब. इस हिसाब पर आप शक कर सकते हैं कि हो सकता है कि रामकरण खर्चों को बढ़ा चढ़ा कर बता रहा हो. आइए हम भारत सरकार की एजेंसी सीएसीपी ( कृषि मूल्य एवं लागत आयोग ) के आंकड़ों की मदद लेते हैं. इससे पहले ए टू, एफएल और सी टू इन तीन शब्दों के मतलब समझने की कोशिश करते हैं. जब हम किसान की खाद, पानी, बिजली, बीज, कीटनाशक, कटाई, मजदूरी, मंडी ले जाने और हुए खर्च को लागत मे जोड़ते है तो उसे ए टू कहा जाता है. इसमें अगर किसान परिवार की मजदूरी यानि फैमली लेबर ( एफ एल ) को जोड़ते है वह ए टू प्लस एफएल कहलाता है. लेकिन स्वामीनाथन आयोग तो कृषि की जमीन और मशीनों के किराये के साथ साथ पूंजी पर ब्याज को भी जोड़ता है. इस हिसाब को हम ए टू प्लस एफएल प्लस सी टू कहते हैं. अब देखते हैं कि एक क्विंटल चने पर कृषि मूल्य एवं लागत आयोग क्या कहता है. चने पर ए टू 1977 रुपये प्रति क्विंटल है. ए टू प्लस एफएल 2461 है और ए टू प्लस एफएल प्लस सी टू 3526 है. जबकि चने पर एमएसपी 4400 है. अगर सी टी पर पचास फीसद मुनाफे की बात की जाये तो यह 5289 प्रति क्विंटल बैठता है. यानि हम कह सकते हैं कि अगर किसान का चना एमएसपी यानि 4400 पर भी बिक रहा है तो भी किसान को प्रति क्विंटल 889 रुपये का घाटा हो रहा है. अब किस मुंह से कहा जा रहा है कि रबी की फसल पर किसान को एमएसपी पर पचास फीसद का मुनाफा हो रहा है.


मसूर की फसल पर भी हो रहा है घाटा


यही हाल रबी की दूसरी फसल मसूर का है. इसके मंडियों में भाव 3400 से 3600 के लगभग है जबकि एमएसपी 4250 रुपये है. किसान कहते हैं कि एक बीघा में एक क्विंटल मसूर ही औसत रुप से होता है और इसपर 6500 से लेकर 7000 रुपये तक की लागत ही आ जाती है. अगर सीएसीपी के आंकड़ों के हिसाब से जाएं तो मसूर का ए टू 1845, ए टू प्लस एफएल 2366 और सी टू 3727 है. अब अगर सी टू पर पचास फीसद मुनाफा देना है तो मसूर का एमएसपी 5690 होना चाहिए. यहां भी साफ है कि किसान घाटे में ही है. उसे प्रति क्विवंटल 1440 रुपये का नुकसान मसूर में उठाना पड़ रहा है. अलबत्ता अगर सरकार ए टू प्लस एफएल ही किसान को देना चाहती है तो वह जरूर कह सकती है कि किसान को इस लागत पर चालीस से पचास फीसद तक का मुनाफा हो रहा है. लेकिन ऐसा तो स्वामीनाथन आयोग ने कहा नहीं था. अगर मोदी सरकार ए टू प्लस एफएल ही दे रही है तो उसे यह कहना छोड़ देना चाहिए कि वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश पर अमल कर रही है.


तेलंगाना सरकार की योजना पर किया जा सकता है विचार


वैसे कुछ जानकारों का कहना है कि एमएसपी पर पचास फीसद मुनाफे पर जोर देने की जगह तेलंगाना सरकार की योजना पर भी विचार किया जा सकता है. वहां सरकार ने प्रति एकड़ प्रति फसल किसान को चार हजार रुपये नकद देने की घोषणा की है. पांच एकड़ तक वाले किसानों को यह लाभ मिलेगा. यानि रबी के बीस हजार और खरीफ के बीस हजार रुपये कुल चालीस हजार रुपये उस सरकार की तरफ से नकद मिल जायेंगे. यह लाभ राज्य से 72 लाख किसानों को मिलेगा और सरकार पर 9600 करोड़ का भार पड़ेगा. राज्य सरकार का मानना है कि चार हजार रुपये प्रति एकड़ देने से किसान की लागत लगभग निकल आएगी. आगे वह फसल एमएसपी या फिर अपने हिसाब से बेचकर घर का खर्च चला सकता है. इस योजना में भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश नहीं है. के चन्द्रशेखर राव सरकार किसानों को गुलाबी रंग के चेक देगी जो रंग उनकी पार्टी के चुनाव चिन्ह से मिलता झुलता है. यानि किसानों को लाभ दो और चुनावी फसल भी काटो.


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