बिहार चुनाव के बाद एनडीए में शुरु हुई खींचतान शपथ ग्रहण से पहले खत्म हो गयी. नीतीश कुमार और बीजेपी ने मंत्रिमंडल में सीटों के बंटवारे का मामला सुलझा लिया. फिलहाल जो तस्वीर बन रही है, उससे इतना तो साफ है कि कुछ बदलावों को छोड़ दें तो यथास्थिति ही कायम रहेगी.
सबसे बड़ी बात बीजेपी न सिर्फ अपने दोनों डिप्टी सीएम रिपीट करने में कामयाब रही, बल्कि नीतीश कुमार की लाख कोशिशों के बावजूद स्पीकर की चेयर उसने अपने खाते में खींच ही ली. अगर सब कुछ सामान्य रहा तो बीजपी के सीनियर लीडर प्रेम कुमार स्पीकर होंगे. वो गयाजी से 9 बार के विधायक हैं. उनसे सीनियर केवल हरिनारायण हैं, जो नालंदा की हरनौत सीट से 10 वीं बार विधायक बने हैं. चूंकि वो सबसे सीनियर हैं तो उनका प्रोटेम स्पीकर बनना लगभग तय है.
हालांकि इस बार नीतीश कुमार स्पीकर की कुर्सी भी जेडीयू में ही रखना चाहते थे. उन्होंने संजय झा और ललन सिंह की मार्फत दिल्ली तक ये संदेश भी पहुंचाया. उनका तर्क था कि चूंकि विधान परिषद् अध्यक्ष पहले ही बीजेपी का है तो स्पीकर इस बार उन्हें चाहिए. मगर बीजेपी इसके लिए कतई तैयार नहीं थी. नीतीश को खामोश कराने के लिए उसने स्पीकर के बदले गृह और सामान्य प्रशासन विभाग मांग लिया. यानि एक तरफ पुलिस और दूसरी ओर आईएएस अफसर. अब भला कौन सीएम दो इतने अहम विभाग छोड़ने को तैयार होता !
नीतीश के सीएम रहते बीजेपी यूं भी कोई रिस्क लेने को तैयार नहीं. इतिहास गवाह है कि नीतीश जिस तेजी से पाला बदलते हैं, उसमें बीजेपी के पास स्पीकर का हथियार होना बहुत जरूरी है. अभी जिस तरह नीतीश ने राज्यपाल से मुलाकात के बाद इस्तीफा देने में दो दिन की देर लगायी उससे ही बीजेपी की सांस अटक गयी थी. बताया जा रहा है कि इस दौरान नीतीश एक-एक बर्थ का सौदा पक्का कर रहे थे. कौन सा महकमा किसके खाते में जाएगा !
अब ये समझना ज़रूरी है कि बिहार में नीतीश के रहते बीजेपी अपना स्पीकर ही क्यों रखती है ?
एक तो यही कि नीतीश कब पलटी मार जाएं इसका भरोसा नहीं, लिहाजा सरकार बचाने में सबसे अहम रोल स्पीकर का ही होगा. वो भी तब जब इस बार जेडीयू ने 85 सीटें जीती हैं, और बीजेपी उससे बस 4 सीट आगे 89 पर है. इस बार हालात वर्ष 2020 वाले भी नहीं, जब चिराग पासवान के चलते नीतीश 43 पर ही सिमट गए थे. यूं भी पटना में चर्चा जोरों पर है कि अभी तो नीतीश बाबू बच गए, लेकिन बीजेपी उनका कार्यकाल पूरा नहीं होने देगी.
दरअसल दिल्ली हो या पटना स्पीकर का रोल हमेशा अहम होता है. सदन के भीतर वही सर्वे-सर्वा होता है, वहां सुप्रीम कोर्ट की भी नहीं चलती. लोकसभा में तो सोमनाथ चटर्जी ने बाकायदा ज्यूडीशियरी से हेड-ऑन ले लिया था. दरअसल स्पीकर सिर्फ सदन नहीं चलाता. वो संकट की स्थिति में, सरकार को अस्थिर होने से भी बचाता है.
स्पीकर का काम हो गया और पेचीदा...
वर्ष 1994 के एस आर बोम्मई केस में ये फैसला आने के बाद कि बहुमत तो ‘फ्लोर’ पर ही साबित होगा. स्पीकर का काम और पेचीदा हो गया. अब उसे जो करना है, सबकी निगाहों के सामने करना है. हालांकि, उसके पास इतना अधिकार हमेशा है कि, कुछ पार्टी के कुछ विधायकों को ऐन वक्त पर वोट देने से रोक दे. सदन में वोटिंग ध्वनिमत हो या बैलेट से ये डिसाइड कर दे. बैलेट से वोटिंग के वावजूद जरूरत भर के वोट अवैध करार दे दे.
बताते चलें कि स्पीकर की ताकत और उसके दो बड़े कारनामों का क्रेडिट भी बीजेपी के ही एक बड़े नेता को जाता है. वो अपने आप में एक नजीर है. कई राज्यों के राज्यपाल रहे केशरी नाथ त्रिपाठी तीन-तीन बार यूपी में स्पीकर रहे. वो बीजेपी के नेता ही नहीं, संवैधानिक दांव पेच के ‘लीगल ईगल’ भी कहे जाते थे. हुआ यूं कि 2002 में यूपी में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. हालांकि बाद में बीजेपी ने चौधरी अजित सिंह के साथ मिलकर मायावती को समर्थन दे दिया. डील ये थी कि आधे कार्यकाल के बाद बहनजी बीजेपी को सत्ता सौप देंगी. मगर ये सरकार 2003 तक ही चली और बहनजी और बीजेपी के बीच खटपट हो गयी. 26 अगस्त 2003 को मायावती ने अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंपा और विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी. उधर बीजेपी विधायकों ने भी राज्यपाल को सरकार से समर्थन वापसी का पत्र भेजा.
अब यहां से शुरु हुआ केशरी नाथ त्रिपाठी का खेल. राज्यपाल ने समर्थन वापसी को मायावती के इस्तीफे से पहले माना. विधानसभा भंग नहीं हुई. उधर मुलायम सिंह यादव ने इसके समानान्तर सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. 27 अगस्त 2003 को बीएसपी के 13 विधायकों ने मुलायम को समर्थन का ऐलान भी कर दिया. हालांकि ये समर्थन दल-बदल कानून का खुला उल्लंघन था. पार्टी तोड़ने के लिए एक तिहाई विधायक जरूरी हैं. मगर केशरी नाथ ने बीएसपी की शिकायत के बावजूद इस पर कोई फैसला नहीं लिया. जबकि मुलायम इन 13 बागियों को जोड़ 210 विधायकों के समर्थन का पत्र लिए राजभवन पहुंच गए. उन्हें बहुमत साबित करने के लिए 2 सप्ताह का समय मिला. इस बीच बीएसपी के 37 और विधायक टूट गए और मुलायम की सरकार संवैधानिक तौर पर मजबूत हो गयी. जो केशरी नाथ त्रिपाठी 13 बागियों की चिट्ठी दबाए बैठे थे, उन्होंने छूटते ही नए गुट को अलग मान्यता दे दी.
1996 का भी मामला रहा चर्चा में
इससे पहले का मामला वर्ष 1996 का है. तब भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. इस बीच बीजेपी और बसपा में तालमेल बना और राज्य में मायावती की सरकार बनी. ये सरकार तो ज्यादा दिन नहीं चली, मगर कल्याण सिंह ने जोड़-तोड़ कर अपनी सरकार बना ली. तब केशरी नाथ ने ‘डिवीजन पार्टी विद इन पार्टी’ करके इस जोड़ तोड़ पर मुहर लगा दी. दो साल बाद यानि 1998 में राज्यपाल रोमेश भंडारी ने मायावती के दबाव बनाने पर जगदंबिका पाल को रातों-रात शपथ दिलाकर सीएम बना दिया. मूलत: कांग्रेसी पाल तब नरेश अग्रवाल के साथ लोकतांत्रिक पार्टी बनाकर कल्याण सरकार में ही मंत्री थे.
ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया जहां से आदेश हुआ कि अगले 48 घंटे के भीतर विधानसभा में ‘इन कैमरा’ कंपोजिट फ्लोर टेस्ट कराया जाए. उसमें जो जीते उसे ही मुख्यमंत्री माना जाए. यहां केशरी नाथ त्रिपाठी की अहमियत पहली बार लोगों की समझ में आयी. अल्पमत में आ गए कल्याण सिंह को 225 विधायकों का समर्थन मिला जबकि जगदंबिका पाल को सिर्फ 196 विधायकों ने वोट किया. इस दौरान त्रिपाठी ने बीएसपी के 12 सदस्यों के वोट भी रद्द कर दिए. मजे की बात ये कि वही जगदंबिका पाल आज बीजेपी से लोकसभा सांसद हैं और वक्फ मामले की संसदीय समिति के मुखिया हैं. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)