बिहार में राजनीति का पारा गर्म है. बयानों के बाउंसर से हर कोई तापमान में गर्माहट पैदा कर रहा है. वैसे खटपट के शुरू होने की तारीख तो काफी पुरानी है लेकिन ताजा मौका दिया है आरसीपी सिंह के एपिसोड ने. शनिवार को कथित तौर पर जमीन घोटाले का आरोप उछाल कर जेडीयू के नेताओं ने जवाब मांगा तो आरसीपी ने पार्टी से ही इस्तीफा दे दिया. इस्तीफे के बाद चर्चा होने लगी कि नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के कुछ विधायक आरसीपी सिंह के संपर्क में हो सकते हैं और बिहार में महाराष्ट्र वाला शिंदे पार्ट-2 हो सकता है.

नीतीश कुमार कैंप तक बात पहुंचे तो सबके कान खड़े हो गये. राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने मोर्चा संभाला और कह दिया कि बिहार में 2020 वाला चिराग मॉडल फिर से जिंदा किया जा रहा है. आगे बढ़े उससे पहले चिराग मॉडल समझ लीजिए. 2020 में चिराग पासवान एनडीए का हिस्सा थे. लेकिन जब विधानसभा चुनाव का गठबंधन फाइनल हुआ तो नीतीश कुमार ज्यादा सीट देने को राजी नहीं हुए.

नतीजा हुआ कि चिराग एनडीए से बाहर हुए और विधानसभा चुनाव में जेडीयू उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार दिये. कई उम्मीदवार तो बीजेपी के नेता था जिन्हें नीतीश से गठबंधन की कीमत अपनी सीट की कुर्बानी देकर चुकानी पड़ी थी. रिजल्ट आया तो जेडीयू तीन नंबर की पार्टी बन गई. आरोप लगे कि बीजेपी ने जानबूझकर चिराग को जेडीयू के पीछे लगा दिया था. खैर... अब उसी चिराग मॉडल की चर्चा है.

इस चर्चा के बीच पटना से दिल्ली तक राजनीतिक गलियारों में ये खबर उड़ी हुई है कि नीतीश कुमार बीजेपी का साथ छोड़कर तेजस्वी से हाथ मिला सकते हैं. वैसे जब जब नीतीश की नाराजगी की खबर सामने आती है उनके पाला बदलने की चर्चा होने लगती है. आरसीपी सिंह चूंकि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर केंद्र में मंत्री रह चुके हैं इसलिए डर इस बात का है कि कहीं उनके साथ कुछ विधायक तो नहीं हैं?

नीतीश के शक की पुख्ता वजह हैं. आरसीपी सिंह को जब राज्यसभा का उम्मीदवार नहीं बनाया जा रहा था तब भी नीतीश कुमार ने विधायकों की बैठक बुलाकर अपनी स्थिति स्पष्ट की थी. महीने डेढ़ महीने में आखिर नीतीश को उस भरोसे पर भरोसा क्यों नहीं रह गया है? अंदरखाने खबर ये है कि आरसीपी सिंह के जमीन विवाद की फाइल खुलने के बाद शक इस बात का है कि कुछ और लोगों की कहीं फाइल न खुल जाए. वैसे बिहार की राजनीति में य़े माना जाता रहा है कि जेडीयू में टिकट बंटवारे का काम आरसीपी सिंह ही किया करते थे. इसलिए जीते हुए नेताओं में से कुछ ही हमदर्दी आरसीपी के साथ हो सकती है.

आरसीपी सिंह जब नीतीश की मर्जी के खिलाफ जाकर केंद्र में मंत्री बने थे तब दर्जन भर जेडीयू के सांसद नेतृत्व के अदृश्य आदेश की अनदेखी कर उन्हें बधाई देने घर गये थे. तब इसको लेकर काफी चर्चा हुई थी. नीतीश ने इन्हीं सवालों का जवाब जानने के लिए मंगलवार को विधायक दल की बैठक बुलाई है. खबर है कि सांसदों को भी इसमें बुलाया गया है. वैसे इस मीटिंग को कुछ लोग इस तरह से भी देख रहे हैं कि क्या नीतीश पाला बदलने के लिये विधायकों का मूड समझना चाहते हैं.

तो अब सवाल ये कि क्या वाकई में नीतीश और बीजेपी के बीच दूरियां बढ़ रही हैं ? पिछले कुछ दिनों की तस्वीरें इसके संकेत तो देती हैं.

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पिछले दिनों चिराग पासवान को एनडीए की बैठक में बुलाना भी नीतीश कुमार की पार्टी के नेताओं को पसंद नहीं आया था.

ये कुछ ताजा उदाहरण हैं. वैसे कहा ये जाता है कि नीतीश कुमार बिहार के मौजूदा बीजेपी नेतृत्व से असहज हैं. कई मंत्रियों के साथ उन्हें काम करने में दिक्कत हो रही है. मंत्री रामसूरत राय का तबादला एपिसोड इसका उदाहरण है. स्पीकर विजय सिन्हा के साथ भी गर्मागर्मी हो चुकी है. 

नीतीश की नाराजगी को देखते हुए ही पिछले दिनों धर्मेंद्र प्रधान से उनकी गुपचुप और लंबी मुलाकात हुई थी. जिसके बाद तय हुआ था कि धर्मेंद्र प्रधान के जरिये ही फैसले लिए जाएंगे. नीतीश भूपेंद्र यादव या किसी और नेता के साथ कॉर्डिनेशन में सहज नहीं थे. खबर तो यहां तक थी कि नीतीश कुमार चाहते हैं कि सुशील मोदी को डिप्टी सीएम बनाया जाए. लेकिन बीजेपी नेतृत्व इसकी इजाजत नहीं दे रहा.

वैसे सूत्रों की मानें तो कहा ये जा रहा है कि बीजेपी अब अपने सीएम के लिये तैयारी कर रही है. पार्टी चाहती है कि नीतीश कुमार इसमें उनकी मदद करें. सूत्रों की मानें तो बीजेपी की इच्छा लोकसभा चुनाव के साथ ही बिहार में विधानसभा चुनाव कराने की है. राजनीतिक तौर पर इसका फायदा बीजेपी को मिल सकता है. अब नीतीश शायद इसके लिये तैयार नहीं होते दिख रहे. शायद नीतीश अपना कार्यकाल पूरा करना चाहते हैं. वैसे भी जेडीयू का अस्तित्व नीतीश कुमार तक ही है. उनके बाद पार्टी का क्या होगा ये कोई नहीं जानता ?

जहां तक बात आरजेडी के साथ नजदीकियों की है तो नीतीश और लालू एक साथ सालों तक राजनीति कर चुके हैं. 1994 में नीतीश लालू से पहली बार अलग हुए थे. फिर 2013 तक बीजेपी के साथ रहे और जब बीजेपी से अलग हुए तो लालू के साथ हो लिये. 2015 में लालू और नीतीश ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. 2017 में करप्शन के सवाल पर लालू- नीतीश की राहें जुदा हुई.

2019 में जेडीयू और बीजेपी ने बराबर-बराबर 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ा. 6 सीटें रामविलास पासवान की पार्टी को मिली थी. जेडीयू अपने कोटे की सिर्फ एक सीट हारी. बाकी बीजेपी और एलजेपी ने अपनी अपनी सभी सीटें निकाल ली थी. जब मंत्री बनने का सवाल आया तो जेडीयू कोटे को एक सीट का ऑफर मिला जिसे नीतीश ने ठुकरा दिया और फिर वहां से रिश्तों में कड़वाहट की शुरुआत हुई जो दोस्ती के इस वाले कार्यकाल में भरते भरते यहां तक पहुंची है.

जहां तक आरजेडी से नजदीकियों का सवाल है तो इस साल रमजान के दौरान इफ्तार पार्टी से इसकी शुरुआत हुई. बाद में जातीय गणना और अग्निपथ योजना पर दोनों दल बीजेपी से अलग एक पिच पर दिखे. लालू यादव जब बीमार हुए तो नीतीश उन्हें देखने अस्पताल गये थे. तेज प्रताप यादव ने चाचा की एंट्री वाला सिग्नल भी सोशल मीडिया पर दिया था.

नीतीश कुमार अगर तेजस्वी के साथ जाते हैं तो फिर कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार आसानी से बन सकती है. तब सरकार के पक्ष में नंबर का गेम 150 से ऊपर जाएगा. लेकिन ये इतना आसान भी नहीं है क्योंकि जब से नीतीश ने पाला बदलने की शुरुआत की है तब से उनके विधायकों की संख्या गिरती जा रही है. और बीजेपी के साथ मिलकर जीते हुए विधायक आसानी से बीजेपी का साथ छोड़ने को तैयार नहीं होंगे क्योंकि उन्हें अपना भविष्य देखना होगा.

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