बिहार एनडीए की राजनीति में हमेशा यह विवाद रहा है कि बड़ा भाई भारतीय जनता पार्टी है या फिर जनता दल यूनाइटेड की भूमिका गठबंधन के भीतर बड़े भाई की है. बड़ा भाई और छोटा भाई का यह विवाद अब और बड़ा हो गया है. हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में  बेहतरीन प्रदर्शन के बाद खबर गर्म है कि बिहार में भी भाजपा अकेले दम पर चुनाव लड़ सकती है. अगर भाजपा अकेले दम पर चुनाव नहीं भी लड़ी तो बिहार एनडीए गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में रहेगी, लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या जनता दल यूनाइटेड बिहार एनडीए में भारतीय जनता पार्टी को बड़े भाई के तौर पर स्वीकार करेगी? 

जेडीयू नहीं करेगी भाजपा को बड़ा भाई स्वीकार!

 अभी तक के ट्रैक रिकॉर्ड के अनुसार ऐसा लगता है कि जनता दल यूनाइटेड या यूं कहिए कि नीतीश कुमार एंड कंपनी बिहार में भारतीय जनता पार्टी को बड़े भाई के तौर पर कभी स्वीकार नहीं करेगी. अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है कि भाजपा के एक शीर्ष नेता का यह कहना की "बिहार में एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा? यह चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी का पार्लियामेंट बोर्ड तय करेगा" के बयान के बाद जदयू ने तलवारें खींच ली. 2020 के एक चुनावी सभा में नीतीश कुमार ने स्वयं का अंतिम चुनाव बताया था, इसके बाद भी जदयू की ओर से कहा जा रहा है "2025 में फिर नीतीश.. 2025 से 30 फिर नीतीश". 

अपने स्वर्णिम दौर से गुजर रही भाजपा के लिए बिहार टीस का विषय बना हुआ है. हालात ऐसे हैं कि नीतीश कुमार के बिना भारतीय जनता पार्टी को बिहार में रहा भी नहीं जा रहा है और नीतीश कुमार को सहा भी नहीं जा रहा है. बिहार में इस तथ्य पर बल दिया जाता है कि भारतीय जनता पार्टी, नीतीश कुमार के बिना प्रदर्शन नहीं कर सकती है. जबकि एक तथ्य यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी के बूते ही नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में पहलवान हुए हैं. 

भाजपा की टीस है बिहार

यह कहा जाता है कि नीतीश कुमार की वजह से ही बीजेपी बिहार में सत्ता में आती है. लेकिन एक सच यह भी है कि भाजपा के गठन के बाद बिहार में जब भी कोई गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसमें भाजपा की भूमिका रही है. बिहार में भाजपा के प्रदर्शन को सिर्फ सत्ता के चश्मे से देखने वाले लोग यह भूल जाते हैं नीतीश कुमार के बिना भी भाजपा ने बिहार में बेहतर प्रदर्शन किया है. 

दअरसल, नीतीश कुमार के साथ 1995 के बाद भाजपा ने एक प्रयोग किया था. नीतीश कुमार के चेहरे के साथ भारतीय जनता पार्टी देश भर के पिछड़ों को यह संदेश देना चाहती थी कि उनके साथ एक पिछड़ा नेता है. भाजपा को यह उम्मीद थी कि नीतीश कुमार के चेहरे का फायदा देश स्तर पर उसको मिलेगा. नीतीश कुमार के चेहरे का फायदा भारतीय जनता पार्टी को देश स्तर पर किस हद तक हुआ यह तो समीक्षा का विषय है, लेकिन यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा के इस प्रयोग का अपने पक्ष में बेहतर उपयोग किया. वर्ष 1994 में गठित नीतीश कुमार के चेहरे वाली समता पार्टी ने जब पहली बार 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाग्य आजमाया था तो उसे उम्मीदों के अनुरुप सफलता नहीं मिली थी. माले के साथ गठबंधन के बाद भी सिर्फ सात सीटें ही मिलीं थीं.

 

हालांकि, भाजपा ने नीतीश और उनकी समता पार्टी को बड़ा मौका दिया. 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ समता पार्टी लड़ी. क्षेत्रीय पार्टी होने के बावजूद वर्ष 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में महज 7 सीट जीतने वाली समता पार्टी ने भाजपा के साथ चुनाव लड़कर वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव में 8 सीटें जीत ली, जिनमें 6 बिहार से थीं. एक-एक सीट यूपी-ओडिशा में जीती. 1998 में एनडीए सरकार की सरकार में रेल जैसा भारी-भरकम मंत्रालय भी नीतीश कुमार को मिला, लेकिन नीतीश कुमार के असल राजनीतिक परवान की कहानी वर्ष 2000 में शुरू हुई. 

वर्ष 2000 के बिहार  विधानसभा चुनाव (तब बिहार और झारखंड संयुक्त था) में महज 34 सीटें जीतने वाली समता पार्टी के नेता नीतीश कुमार को 67 जीतने वाली भाजपा ने मुख्यमंत्री के तौर पर स्वीकार किया. नीतीश कुमार ने पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली. यह बात और है कि उन्होंने उस वक्त विधानसभा में बहुमत साबित करने से पहले ही मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था. 

 कहा जाता है कि गठबंधन में कम सीटों के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के पद की शपथ दिलाने के पीछे उस समय अटल और आडवाणी जैसे नेताओं की बड़ी भूमिका थी. इन दोनों नेताओं को बिहार में नीतीश के चेहरे पर राजी करने का कार्य अरुण जेटली ने किया था. जिसके बाद शुरू होती है बिहार एनडीए गठबंधन के बड़े भाई और छोटे भाई की कहानी. 

बड़ा भाई है छोटे भाई से नाराज

कम सीटों के बाद भी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली समता पार्टी बड़े भाई की भूमिका में आ गई और ज्यादा सीटों के बाद भी बीजेपी बिहार में छोटे भाई की भूमिका में आ गई. शायद उस समय की भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व यह मान रहा था कि बिहार जैसे राज्य में पीछे से राजनीति करने के बाद भी अगर केंद्र स्तर पर नीतीश कुमार के समर्थकों का उन्हें फायदा मिलता है तो कोई नुकसान नहीं है. 

इस तरह भारतीय जनता पार्टी के बेस वोट बैंक के सहारे और भाजपा के भीतर नीतीश कुमार की स्वीकार्यता ने उन्हें हर कीमत पर बिहार एनडीए के अंदर बड़ा भाई बना दिया. बिहार में नीतीश कुमार अपनी पार्टी के साथ ही भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में भी हस्तक्षेप करने लगे. सीट बंटवारों से लेकर बिहार में भाजपा की नीतियों तक को नीतीश कुमार ने प्रभावित करना किया. तब, भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व शायद अपनी पार्टी के बिहार के नेताओं से ज्यादा नीतीश कुमार पर भरोसा किया. 

नीतीश कुमार ने भरोसे का खूब फायदा उठाया. नतीजा यह हुआ बिहार भाजपा के भीतर नीतीश कुमार के पसंद वाले नेताओं को तवज्जो दी जाने लगी. नीतीश कुमार को अपना परम विश्वासी मानकर भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश स्तर पर मुख्यमंत्री बनने लायक नेतृत्व को बिहार में उभारने का प्रयास नहीं किया. यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक भारतीय राजनीति में अटल-आडवाणी युग कायम रहा. 

 भाजपा में आडवाणी युग के खात्मे और नए नेतृत्व के आगमन के बाद नीतीश कुमार के लिए बिहार एनडीए में बड़ा भाई बन के रहना मुश्किल होने लगा. नरेंद्र मोदी और अमित शाह वाली भाजपा एनडीए के भीतर नीतीश को उनके हैसियत से अधिक सम्मान देने को तैयार नहीं है. लेकिन इसे नीतीश कुमार का कूटनीति कहिए या किस्मत की बाद में भी नीतीश कुमार भाजपा पर बिहार में भारी पड़ते रहते हैं. वोट बैंक और सीटों में पिछड़ने के बाद भी नीतीश कुमार बिहार एनडीए के भीतर बड़े भाई वाले रौब में रहते हैं. 

 जबकि कायदे से देखें तो केवल दो-एक ऐसा मौका था जब नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड बिहार में एनडीए के भीतर बड़े भाई की भूमिका में थे. आंकड़ों के हवाले से वर्ष 2005 से 2013 के बीच वो दौर था जब भाजपा से अधिक सीटें नीतीश की पार्टी जदयू के पास थी. जबकि सीटों पर विजय और वोट प्रतिशत के आंकड़ों के हिसाब से बिहार एनडीए गठबंधन के भीतर कुछ एक मौकों को छोड़कर भाजपा की भूमिका बड़ा भाई की ही रही है. 

इसके बाद भी बिहार की राजनीति में यह थ्योरी ज्यादा प्रचारित- प्रसारित की गई कि एनडीए गठबंधन के भीतर नीतीश कुमार और उनकी पार्टी ही बड़े भाई की भूमिका में हैं. आंकड़ों के हवाले से अभी भी बिहार की सरकार में नीतीश कुमार की पार्टी भाजपा की तुलना में छोटी पार्टी है. जनता में चाहत के पैमाने पर छोटा होने के बाद भी नीतीश कुमार का बिहार एनडीए गठबंधन में बड़े भाई का रुतबा बरकार है तो इसके पीछे यही कहा जा सकता है कि "नीतीश बिना भाजपा को रहा भी ना जाए, भाजपा को नीतीश का साथ सहा भी ना जाए".

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