सोचा नहीं था कि बागेश्वर धाम के बाद किसी नये धाम की कथा भी लिखनी पड़ेगी मगर ये टीवी पत्रकारिता ही है जो नयी जगह नये नजारे दिखाती है. सुबह जब भोपाल से चले तो थे सोचा था शाम तक आ जायेंगे मगर सीहोर से आगे बढ़ते ही हालात का अंदेशा हो गया था. सीहोर रेलवे स्टेशन से पैदल सिर पर गठरी, कंधे पर लटके बैग और चक्के वाले सूटकेस लिये हजारों लोगों की भीड़ दिखने लगी थी. ये सब भक्ति भाव में नारे लगाते चले जा रहे थे. हालांकि दो तीन किलोमीटर बाद ही तेज धूप में थकान होते ही पूछने लगते थे कि वो धाम अभी कितना दूर है. भोपाल इंदौर के बीच का हाईवे एक तरफ से बंद कर इन पैदल चलने वालों के लिये छोड़ दिया गया था क्योंकि इतने लोगों के बाद वाहनों को चलने की जगह ही नहीं बचती थी.


ऐसा लग रहा था कि लोग चले ही आ रहे हैं और इन आने वालों में बड़े-बुजुर्ग बच्चे और ज्यादातर महिलाएं थीं. ये श्रद्धालु एमपी के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र-गुजरात और बिहार जैसे दूर के राज्यों से भी आ रहे थे. दरअसल ये धार्मिक चैनलों का प्रताप है कि अपनी पेन इंडिया पकड़ के चलते पूरे देश में कथावाचकों का बड़ा दर्शक मंडल पैदा हो गया है और जो उसे घर के टीवी और हाथ के मोबाइल पर देखकर उसके एक बुलावे पर दौड़ पडते हैं.


तो सिहोर जिले के चितावलिया हेमा गांव में रहने वाले कथावाचक पंडित प्रदीप मिश्रा ने जब टीवी पर कहा कि लोग महाशिवरात्रि पर्व मनाने उनके गांव में बने कुबेरेश्वर धाम आयें वहां सात दिन ठहरें, उनकी कथा सुनें, भोजन प्रसादी पायें और लौटते में वो रूद्राक्ष भी ले जायें जो अभिमंत्रित है, जिसकी महिमा वो अपने प्रवचनों में लगातार बताते हैं तो क्या चाहिये. धर्म में डूबी जनता को. आम के आम गुठली के दाम. 


सारी मनोकामना पूरी करने वाले  रुद्राक्ष लेकर आने की चाह में ये सब चले आ रहे थे गाड़ियों में भरकर, ट्रेनों में लटककर और बसों में ठूंस कर. मगर ये क्या, यहां तो पुलिस ना तो गाड़ियों को, ना आटो को कुबेरेश्वर जाने दे रही थी जिसके बारे में कथा में कहा जा रहा था कि सिहोर स्टेशन से मुफ्त आटो आपको धाम छोड़ जायेगा. मगर यहां तो पैसा भी आटो वाले का मुंह मांगा दे रहे हैं और आधे रास्ते में ही छोड़ रहा है.


टीवी के चमकते प्रवचनों की सच्चाई से ठीक उलट जब ये लोग तेज धूप में नौ किलोमीटर पैदल चल रहे थे तो सोच रहे थे महाराज जी के इंतजाम ठीक नहीं है. मगर कुछ ऐसे भी थे तो इसी बात पर संतोष जता रहे थे कि चलो ऐसी जगहों पर ऐसा तो होता ही है.


उधर हम हमारे कैमरामैन मुन्ना भाई और नितिन के साथ इस भीड़ में धर्म के अखंड रंग में रंगी जनता और जाम में फंसे लोगों की नाराजगी के बीच जगह बनाते चले जा रहे थे. गाडी को तो हमें भी संजय के भरोसे सीहोर जोड़ पर ही छोड़नी पड़ी. कुबेरेश्वर धाम का गांव अभी भी कई किलोमीटर दूर था मगर अब गांव से लौटने वाले टकराने लगे थे और माइक कैमरा देख ये सब बोलने को बेताब थे.


भक्ति भाव से गांव की ओर जा रहे लोगों से अलग ये लौट रहे इन लोगों के पास पंडित जी के आयोजन की अव्यवस्थाओं की शिकायतों की लंबी लिस्ट थी. भाई साहब पूरे गांव में पीने का पानी का कोई इंतजाम नहीं है. तीस से चालीस रुपये में पानी की बोतल मिल रही है. रुकने ठहरने की बात तो दूर छांह का भी इंतजाम नहीं है. और तो और रूद्राक्ष भी नहीं बांटे जा रहे हम तो रूद्राक्ष के लिये आये थे ये बता रहे थे छत्तीसगढ की धमतरी से परिवार के साथ आये ताराचंद साहू. 


साहू के साथ उनकी पत्नी और बुजुर्ग मां भी थी जिनके घुटनों में बैंड लगे हुये थे. मुश्किल से वो चल पा रहीं थीं. थोडे आगे बढते ही घेर लिया महाराष्ट्र के अकोला से आये महिलाओं की टोली ने जो एक टैंपो टैक्स में बीस लोग बैठकर आये थे और अब लौटने के लिये अपनी गाडी की तलाश कर रहीं थीं. नेटवर्क जाम होने से फोन लग नहीं रहे थे किसी तरह रोड के किनारे पेड की छांव में बैठीं थीं. महाराज जी प्रवचन तो अच्छा करते हैं मगर इंतजाम नहीं कर पाये. बहुत मुश्किल से गांव गये और उससे ज्यादा मुश्किल से गांव से निकले अब जाम हटे तो अपने गांव निकलें. खाना पानी सबकी दिक्कत हो रही है और रूद्राक्ष भी नहीं मिला.


हमने पूछा मिल जाता तो क्या हो जाता तो सुनंदा तारे बोलीं यहां आना सफल हो जाता, अड़ोस पड़ोस के लोगों ने भी बुलवाया था हम क्या बतायेंगे. जिसे देखो वो इस अफरा-तफरी से परेशान था. भोपाल इंदौर हाइवे पर गाडियां तो दिख रहीं थी मगर उनसे कई गुना ज्यादा लोग उनके आस पास से गुजर रहे थे. ये हटें तो गाडियां चलें. दोनों तरफ सड़क पर भीड़ ही भीड़. ये देखना और दुखद था कि ये लोग आने जाने वाले रास्तों के बीच के गहरे गड्ढे में उतर कर रास्ता पार कर रहे थे. इन गहरी खाइयों में फिसल कर बडे बुजुर्ग गिर रहे थे. सबसे बुरा हाल सड़क की पुलिया का था जहां भीड़ बढ़ने पर नीचे गिरने का डर था.


हम भी किसी तरह कुबेरेश्वर धाम के सामने बसे गांव गुड भेला तक पहुंचे तो गांव में अलग ही नजारा था. इस गांव की सड़क की दुकानों के सामने लोग आलथी-पालथी मारकर बैठे और लेटे थे. ये सब वो थे जो भीड़ के कारण कुबेरेश्वर जा नहीं पा रहे थे. गांव में थोड़े अंदर जाते ही अलग नजारा था, लग रहा था पूरा गांव पानी ही बेच रहा है. हर घर के बाहर पीने के पानी की बोतल मनमर्जी दामों पर बिक रही थी. गांव के बड़े-छोटे घरों में पंडित जी के श्रद्धालु प्रति व्यक्ति पांच सौ या कमरे के एक हजार रूपये के रेट पर रुके हुये थे. 


गांव के लोगों की अपनी शिकायत इस बार पंडित जी ने गांव वालों से कोई मदद नहीं मांगी. सबको कुबेरेश्वर धाम में ही ठहराने का वायदा कर दिया था. मगर जब जनता रात में घर के दरवाजे खटखटाती या जो परिवार हमारे घर के बाहर खुले में बच्चों के साथ लेटा है तो उसे कैसे अंदर आने को ना कहें. तो करीब हर दूसरे घर में बाहर से आये श्रद्धालु रूके हैं जो आयोजन में अव्यवस्था को बिना पानी पिये कोस रहे थे. पानी महंगा खरीद कर पीना पड़ रहा था. खाने की व्यवस्था इस गांव में भी नहीं थी. समोसे भजिये और चिप्स खाकर कब तक रहेंगे ये सवाल यहां ठहरे लोगों के सामने था. उधर अब हमारे सामने चुनौती थी ठप नेटवर्क में अपनी फीड भेजना और उस कुबेरेश्वर धाम तक पहुंचना जहां भीड़ का अथाह सागर दिख रहा था.
( हम कैसे अंदर जा पाए और वहां क्या देखा अगली कडी में )