देश के किसी भी हिस्से में होने वाली त्रासदी के लिए वैसे तो वहां की सरकार ही जिम्मेदार या दोषी होती है लेकिन अक्सर सरकारें ऐसी किसी भी मामले में खुद को कभी कसूरवार नहीं मानतीं. इन सबसे बचने का हमारे सिस्टम के पास एक अचूक औजार ये है कि जांच बैठा दीजिये क्योंकि मरने वाला तो वापस आने नहीं आने वाला. लिहाज़ा, त्रासदी कितनी भी भयावह हो, उससे सरकार के शीर्ष पर बैठे नुमाइंदों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, इसलिये कि उससे उनका सिंहासन नहीं हिलने वाला है. लेकिन इतिहास गवाह है कि  बेगुनाह मौतों की चीख ने दुनिया की कई सल्तनतों को पैरों तले ला दिया है. ये अलग बात है कि हमारे देश में कोई भी सरकार उस इतिहास को सिर्फ किताब का एक पेज समझते हुए उसे कोई तवज्जो देने की जरुरत तब तक नहीं समझती, जब तक कि वो सड़क पर नहीं आ जाती.


महाराष्ट्र में अहमदनगर के सरकारी अस्पताल में शनिवार को आग लगने से  जिन 11 बेगुनाह लोगों की मौत हुई है, वो राज्य सरकार की घोर लापरवाही का  नतीजा है और अगर उसे बेरहम कहा जाये, तो गलत नहीं होगा. सब जानते हैं कि पिछले डेढ़ साल से देश में कोरोना महामारी की तबाही मची हुई थी, जिसके चलते पहले उन मरीजों की जान बचाना ही हर अस्पताल के डॉक्टरों व उनसे जुड़े मेडिकल स्टाफ का एकमात्र इंसानियत का धर्म था.


लेकिन इस विपदा के माहौल में किसी भी अस्पताल के लिए सबसे जरुरी व बुनियादी चीज होती है कि वो अपने फायर सेफ्टी सिस्टम को दुरुस्त करके रखे,  चाहे वो प्राइवेट हो या सरकारीअस्पताल हो. अहमदनगर के सिविल अस्पताल में हुए इस भयावह अग्निकांड की जो शुरुआती वजह बताई गई है, वो ये है कि कोरोना से संक्रमित आईसीयू वार्ड के एसी में शॉट सर्किट होने से ये हादसा हुआ. इसका सीधा-सा मतलब ये है कि उस अस्पताल के फायर सेफ्टी उपकरणों को दुरुस्त करने की जरूरतों को भगवान के भरोसे इसलिये छोड़ दिया गया कि इससे क्या फर्क पड़ने वाला है और न ही कोई उनसे पूछने वाला है. जबकि हर अस्पताल की सबसे पहली व अहम जरुरत ये होती है कि वहां आग लगने जैसा कोई हादसा होने की सूरत में उससे बचाव के हर मुमकिन इंतजाम हों, उसके बगैर तो फायर डिपार्टमेंट एक छोटे-से नर्सिंग होम को चलाने की भी इज़ाज़त नहीं देता. लिहाज़ा, सवाल ये उठता है कि देश के तमाम सरकारी अस्पतालों में वहां के प्रशासन का अगर यही रवैया है, तो क्या हम किसी और बड़ी त्रासदी को देखने का इंतज़ार कर रहे हैं?


सवाल तो ये भी नहीं है कि जिन बेकसूर लोगों की किसी की लापरवाही के चलते जान चली गई और सरकार ने उनके परिवारों को पांच-सात लाख रुपये का मुवावजा देकर अपना पिंड छुड़ा लिया, बल्कि बड़ा सवाल ये है कि आखिर इस लापरवाही भरे सिस्टम को चलाने की शह कौन देता है? इस त्रासदी के जरिये सिर्फ महाराष्ट्र को ही नहीं बल्कि हर राज्य सरकार को ये सबक लेना चाहिए कि उन्होंने अपने सरकारी अस्पतालों को किस हद तक यमराज के भरोसे ही छोड़ रखा है. वो भी तब जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समूचे देश में 'आयुष्मान भारत' योजना का डंका बजा रखा है, जो है ही गरीबों के लिए.


आपको याद होगा कि अहमदनगर जैसी हर त्रासदी के बाद उस राज्य की सरकार जांच के आदेश दे देती है, सो महाराष्ट्र ने भी वही कर दिया. लेकिन कभी गौर किया कि ऐसी जांच-रिपोर्ट के आधार पर अभी तक कितने मंत्री, कितने नौकरशाह जेल गए हैं. गूगल पर सर्च करने के बाद भी बमुश्किल कोई एकाध नाम ही मिलेगा, जिसका नाता बरसों पुरानी किसी दुर्घटना से रहा होगा.


दरअसल, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का ढांचा ही कुछ इस तरह से बना हुआ है कि इस तरह की होने वाली सभी जांच लीपापोती करने से ज्यादा कुछ नहीं होती हैं और इनमें दो-सीजर जूनियर अफसर को फंसाकर बाकी सारी बड़ी मछलियों को बेहद चतुराई से बचा लिया जाता है. सो, पूरे सिस्टम को सुधारने के लिए गंगोत्री से यानी सरकार में बैठे संबंधित मंत्री की तरफ से सख्त संदेश देने की जरुरत होती है और इसके लिए उसे अपनी कुर्सी की कुर्बानी भी देनी पड़ती है. लेकिन समय बदलने के साथ अब न तो वैसे मंत्री हैं और न ही उनमें ऐसा जज़्बा है कि वे ऐसी भयावह त्रासदी पर अपनी कुर्सी छोड़ने की कल्पना भी कर सकें. हालांकि सत्ता में बैठे लोग सवाल उठा सकते हैं कि एक अस्पताल में आग लगने से हुई इस घटना के लिए राज्य के स्वास्थ्य मंत्री को भला कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है और नैतिकता के आधार पर उनसे कोई इस्तीफा कैसे मांग सकता है?


इस सवाल का जवाब तलाशने के लिये राजनीति के इतिहास के पन्नों को पलटने की जरूरत भी नहीं है. इसके लिए सिर्फ एक मिसाल ही काफी है कि एक बड़ी कुर्बानी से निचले स्तर तक के पूरे सिस्टम में कैसा हड़कंप मचता है और कैसे वो अपनी लाइन पर आ जाता है. मौजूदा नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के दिवंगत पिता माधवराव सिंधिया भी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव सरकार में इसी महकमे के काबीना मंत्री हुआ करते थे. साल 1993 में एक यात्री विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया. तब मोबाइल फोन का जमाना नहीं था,  फिर भी उन्होंने अपने सारे सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर महज़ आधे घंटे के भीतर ही अपने पीएस को कमरे में बुलाकर कहा कि "मेरा इस्तीफा टाइप कीजिये कि मैं इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अब खुद को इस पद पर रहने के काबिल नहीं समझता. ' वो ये इस्तीफा लेकर खुद पीएम के पास गए और गुजारिश करी कि आप इसे तत्काल मंजूर कीजिये.


पीएम के लाख समझाने के बावजूद उन्होंने ये कहते हुए अपना फैसला  नहीं बदला कि उन बेकसूर लोगों की मौत का जिम्मेदार नैतिक रुप से मैं ही हूं क्योंकि मंत्री रहते हुए उनकी सुरक्षित हवाई-यात्रा मैं सुनिश्चित नहीं कर सका. मजबूरन, नरसिंह राव को उनका इस्तीफा मंजूर करना पड़ा. बहुतेरे लोग अब भी ये सवाल उठा सकते हैं कि सिंधिया ने ऐसा बेवकूफी भरा फैसला क्यों लिया, क्योंकि दुर्घटनाग्रस्त जहाज़ के पायलट वे खुद तो थे नहीं. लेकिन राजनीति में यही शुचिता वो काम कर दिखाती है, जो सरकारों की बरसों की मेहनत नहीं रंग ला पाती.  उस दिन से लेकर आज तक देश में किसी यात्री विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने की कभी नौबत ही नहीं आई. शायद इसलिए कि एक मंत्री के इस्तीफे ने पूरे सिस्टम को हमेशा चाक-चौबंद रहने पर मजबूर कर दिया.



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