सिख दंगा 1984 का नाम सुनते ही लोगों की रूहें कांप जाती हैं. ये वो साल है जिसने हजारों लोगों को ऐसे जख्म दिए हैं जो आज भी रिसते हैं, उन दंगो का दर्द ऐसा है जो 34 साल बाद भी कम होने का नाम नहीं ले रहा है. 31 अक्टूबर 1984 को ये खबर आई कि देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर दो सिख सिक्योरिटी गार्डस ने गोली चला दी है. दोपहर के बाद इंदिरा गांधी की मौत की खबर से पूरे देश के लोग सदमे में आ गए. उनकी मौत की खबर से दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में सिख विरोधी दंगे भड़क गए. आने वाले तीन दिनों में सिखों के साथ क्या सलूक होने वाला था इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.


सिख विरोधी दंगों के 34 साल बीत जाने के बाद दिल्ली का एक कोना ऐसा है जो गुस्से और दर्द से आज भी तड़प रहा है. पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके के ब्लॉक 32 में सबसे ज्यादा लोग इस दंगे में मारे गए थे. उस समय यहां के ज्यादातर बाशिंदे सिख थे. त्रिलोकपुरी में रहने वाले जिन परिवार के लोगों को मारा गया अब उनमें से ज्यादातर लोग तिलक विहार रीसेटलमेंट कॉलोनी में रहते हैं. तिलक विहार वो इलाका है जहां सिख विरोधी दंगों से पीड़ित लोगों को फिर से बसाने की कोशिश की गई थी. पूरी कॉलोनी में इतनी महिलाएं विधवा थी कि लोगों ने इस कॉलोनी को विधवा कॉलोनी कहना शुरू कर दिया था.


तिलक विहार की रीसेट्लमेंट कॉलोनी में रहने वाली गोपीकौर ने उस कत्लेआम में जो खोया उसकी टीस आज भी कम नहीं हुई है. उनके मुताबिक हमलावरों ने उनके पति को पहली हॉकी, डंडों से मारा फिर उसके बाद पेट्रोल डालकर उनका चेहरा जला दिया. इस हमले में उनके पति की सिर्फ एक बाजू बची थी जिसकी वजह से वह अपने पति को पहचान पाई थी.


रीसेट्लमेंट कॉलोनी में ही रहने वाली विद्या देवी कहती हैं कि 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के बाद उन्होंने रोना छोड़ दिया. वो कहती हैं, "हमारा पति भी पड़ोस के घर में छुपा हुआ था. दंगाइयों ने मेरे पति को इतना मारा कि वो अधमरा हो गया. उनके शरीर के पास एक कुत्ता गया और खून चाटने लगा. मेरी जो छाती है ना वो बहुत पक्की है. हमने देखा कि कुत्ते खा जाएंगे उनको. हमने घर की चारपाई उनके ऊपर डाल दी और बाद में अपनी चुन्नी भी उनपर डाल दी”.


दंगों से बचने के लिए विद्या देवी के पति पड़ोसी के घर में छिपे थे, गली के ही कुछ परिवार वालों ने पागल भीड़ को उनके यहां छिपे होनी की जानकारी दे दी, इसके बाद उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया. विद्या देवी ने कुछ हमलावरों को पहचान भी लिया था लेकिन कुछ नहीं हुआ.


इस कत्लेआम के बाद हजारों बच्चों के सिर से पिता का साया उठ गया. घर में कमाने वाला कोई नहीं बचा. यहां रहने वाली गोपीकौर कहती हैं, "हमारे बच्चे अनपढ़ रह गए जिसके चलते उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली, हमारे घर में कोई कमाने वाला नहीं था. एक विधवा मां, बच्चों को कहां से पढ़ाएगी”


1984 का ये कत्लेआम सिर्फ त्रिलोकपुरी में ही खत्म नहीं हुआ था. यहां से लगभग तीन किलोमीटर दूर कल्याणपुरी में भी भारी नरसंहार हुआ था. यहां की गलियां आज भी उसकी गवाही दे रही हैं. यहां रहने वाली बलविंदर कौर ने पूरी गली को उजड़ते हुए देखा है. वो बताती हैं, "जिंदा लोगों के ऊपर तेल डालकर उन्हें जला दिया गया. लोग तड़प रहे थे, पानी मांग रहे थे, लेकिन पानी भी पीने नहीं दिया जा रहा था. वो बताती हैं, "इस इलाके में नालियां बहुत थीं. लोगों का मुंह उसमें डालकर पेट्रोल डालकर जला दिया गया".


कल्याणपुरी में ही रहने वाली आशा सिंह बताती हैं कि उनके एक परिचित को हमलावरों ने कोंडली नहर में मारकर फेंक दिया गया था. विकासपुरी में रहने वाले मशबूर पंजाबी सिंगर दिलबाग सिंह पहले तिलक विहार रहते थे. वे बताते हैं, "उस दिन भीड़ हमारे घर में घुस आई थी. हमलावरों ने मेरे चाचा का सिर फाड़ दिया था” वो कहते हैं कि 2 नवंबर के दिन उनके भाई को दंगाइयों ने आधा जला दिया था.


1984 में देश भर में कितने सिख मारे गए उस संख्या पर विवाद है. दंगों के कुछ समय बाद खबरें आई कि देश में करीब 2700 सिखों की हत्याएं हुई हैं. वहीं, दिल्ली में हुए सिख दंगे की खबर तो सबने जान ली, लेकिन यहां से दूर हरियाणा में एक गांव ऐसा भी है जहां कितने सिखों को मारा गया वो बात कई सालों तक उजागर ही नहीं हुई. हरियाणा के रेवाड़ी शहर के पास चिल्हड़ गांव हैं. इस गांव में 1984 में जिन घरों में कत्लेआम, आगजनी, लूट हुई वे घर आज भी उसी स्थिति में हैं.


इस गांव के उजड़े हुए घर पर वे निशानियां आज भी वैसी की वैसी मौजूद हैं. इस इलाके की सुध सालों तक किसी ने नहीं ली. साल 2011 में लुधियाना के रहने वाले मनविंदर सिंह को इस गांव की जानकारी मिली जिसके बाद इस गांव की दर्दनाक कहानी लोगों के सामने आई. यहां रहने वाले पीड़ित परिवार सिख विरोधी दंगों के बाद फिर कभी लौटकर नहीं आए.


रेवाड़ी में रहने वाली सुरजीत कौर के मुताबिक उस समय दंगाई बसों में भरकर आए थे. वे बताती हैं, "मेरे परिवार में 12 सदस्य थे. दादा-दादी, मम्मी-पापा, दो भाई, तीन बुआ और तीन चाचा. दंगाइयों ने सभी को मार डाला''. 90 साल के उत्तम सिंह इन दिनों पंजाब के बठिंडा में रहते हैं. 1984 में वे हरियाणा के चिल्हड़ गांव में रहते थे. इस कत्लेआम की गवाई देते हुए आज भी उनकी रुहें कांपती हैं. वे बताते हैं कि दंगाइयों ने गांव में रहने वाले सभी सिखों को मौत के घाट उतार दिया. 2 साल के बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक जो भी उन्हें मिला सबको उन्होंने मारकर कुएं में डाल दिया''.


1984 में सिख विरोधी दंगों के पीड़ित आज भी यहीं पूछते हैं कि उनका कसूर क्या था. उन्हें किस चीज की सजा दी गई. सरकार से पीड़ित परिवारों को वादे मिले, कुछ को मुआवजा भी मिला, लेकिन जिंदगी पटरी पर कभी लौटकर नहीं आई. पीड़ित आज भी न्याय के इंतजार में हैं.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)